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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (कृष्ण ) को जन्म दिया। उसी नगर में समुद्रविजय नामक एक राजा रहता था। उसकी भार्या शिवा से गौतमगोत्रीय अरिष्टनेमि का जन्म हुआ था। कृष्ण ने अरिष्टनेमि के साथ विवाह करने के लिए राजीमती की मँगनी की। राजीमती के पिता ने कृष्ण को कहला भेजा कि यदि अरिष्टनेमि विवाह के लिए उसके घर आने के लिए तैयार हों तो वह उन्हें अपनी कन्या देगा। ____ अरिष्टनेमि को सब प्रकार की औषधियों द्वारा स्नान कराया गया, कौतुक, मंगल किये गये, उन्हें दिव्य वस्त्र पहनाये गये, आभरणों से विभूषित किया गया और तत्पश्चात् मदोन्मत्त गंधहस्ती पर आरूढ़ हो, दशाह राजाओं के साथ चातुरंगिणी सेना से सज हो वे विवाह के लिए चल पड़े। ___अपने भावी श्वसुर के घर जाते हुए रास्ते में उन्होंने बाड़ों और पिंजरों में बँधे हुए मृत्युभय से पीड़ित बहुत से पशु-पक्षियों को बिलबिलाते देखा । सारथी से पूछने पर मालूम हुआ कि इनको मारकर बारातियों के लिए भोजन तैयार किया जायगा। यह सुनकर अरिष्टनेमि को वैराग्य हो आया। उन्होंने अपने कुंडल, कटिसूत्र आदि आभरणों को उतार सारथी के हवाले कर दिया और वापिस लौट गये। नेमिनाथ पालकी में सवार होकर द्वारका नगरी से प्रस्थान कर रैवतक' पर्वत पर पहुँचे और वहाँ पंचमुष्टि केशलोच करके दीक्षा ग्रहण की। उधर जब राजकन्या राजीमती ने नेमिनाथ की दीक्षा का वृत्तान्त सुना तो वह शोक से मूच्छित हो गिर पड़ी और विचार करने लगी-मेरा जीवन धिक्कार है जो वे मुझे त्याग कर चले गये। अब मेरा प्रव्रज्या धारण करना ही ठीक है । यह सोचकर उसने भ्रमर के समान कृष्ण और कंघी किये हए अपने कोमल केशों का लोचकर रैवतक पर्वत पर पहुँच आर्यिका की दीक्षा ग्रहण की। एक बार वर्षा के कारण राजीमती के सब वस्त्र गीले हो गये। अंधेरा हो जाने के कारण वह एक गुफा में खड़ी हो गई। जब वह अपने वस्त्रों को उतार कर उन्हें निचोड़ रही थी तो अकस्मात् अरिष्टनेमि के भाई रथनेमि-जो वहाँ ध्यानावस्था में आसीन थे-की दृष्टि राजीमती पर पड़ी। राजीमती को वस्त्र: रहित अवस्था में देख रथनेमि का चित्त व्याकुल हो गया। इसी समय राजीमती ने भी रथनेमि को देखा और उन्हें देखते ही वह भयभीत हो गई। उसकी देह काँपने लगी और उसने अपने हाथों से अपने गुप्त अंगों को ढंक लिया। राजीमती को देखकर रथनेमि कहने लगे१. इसे ऊर्जयन्त अथवा गिरिनार (गिरिनगर) नाम से भी कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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