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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विरमण आदि व्रतों का पालन करना होता है। हे पुत्र ! तू अत्यन्त कोमल है, भोग-विलास में डूबा हुआ है, इसलिए तू श्रमणधर्म को पालन करने के योग्य नहीं है। लोहे के भार को ढोने के समान तेरे लिए संयम का भार वहन करना दुष्कर है। जैसे गङ्गा का प्रवाह दुस्तर है, अथवा सागर को भुजाओं से तैर कर पार नहीं किया जा सकता, उसी तरह संयम धारण करना कठिन है। जैसे बालू का भक्षण करना, तलवार की धार पर चलना, साँप का एकान्त दृष्टि से सीधे गमन करना और लोहे के चने चबाना महाकठिन है, उसी तरह संयम का पालन करना भी महादुष्कर है ।
मृगापुत्र-हे माता-पिता ! जो आपने कहा, ठीक है लेकिन निस्पृही के लिए इस लोक में कुछ भी दुष्कर नहीं है ।
माता-पिता-यदि तू नहीं मानता तो खुशी से दीक्षा ग्रहण कर, लेकिन याद रखना, चारित्रपालन में संकट पड़ने पर निरुपाय हो जाओगे।
- मृगापुत्र-आप जो कहते हैं ठीक है, लेकिन बताइये कि जंगल के पशु-पक्षियों का कौन सहारा है ? जंगल के मृग को कष्ट होने पर उसे कौन
औषधि देता है ? कौन उसकी कुशल क्षेम पूछता है ? और कौन उसे भोजन'पानी देता है ? इसी तरह भिक्षु भी मृग के समान अनेक स्थानों में विचरण करता है और भिक्षा मिलने या न मिलने पर वह दाता की प्रशंसा या निन्दा नहीं करता। इसलिए मैं भी जंगल के मृग की भाँति विचरण करूँगा। : माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त होने पर मृगापुत्र ने संयम ग्रहण किया और
अन्त में सिद्धगति प्राप्त की (१-९८)। महानिर्ग्रन्थीय: . एक बार मगध के राजा श्रेणिक घूमते-फिरते मंडिकुक्षि नामक चैत्य में पहँचे। वहाँ पर उन्होंने वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक मुनि को देखा। उसका रूप देखकर राजा अत्यन्त विस्मित हुआ और उसके रूप, वर्ण, सौम्यभाव, क्षमा आदि की पुनः पुनः प्रशंसा करने लगा । उसे नमस्कार कर और उसकी प्रदक्षिणा कर राजा प्रश्न करने लगा
राजा-हे आर्य ! कृपा कर कहिये कि भोग-विलास सेवन करने योग्य इस तरुण अवस्था में आपने क्यों श्रमणत्व की दीक्षा ग्रहण की ?
मुनि-महाराज ! मैं अनाथ हूँ, मेरा कोई नाथ नहीं है, आज तक कोई मुझे कृपालु मित्र नहीं मिला है।
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