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उतराध्ययन
पिता भी पुत्र के मरने पर उसे श्मशान ले जाता है, इसलिए हे राजन् ! तू तप
का आचरण कर
मुनि का उपदेश सुनकर राजा अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसने अपने राज्य का त्याग कर श्रमण-दीक्षा ग्रहण की ।
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संयत मुनि का एक क्षत्रिय राजर्षि के साथ संवाद होता है । इस संवाद में भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, महापद्म, हरिपेण और जय नामक चक्रवर्तियों तथा दशार्णभद्र, नमि, करकण्डू, द्विमुख, नम: जित्, उद्दायन, काशीराज, विजय और महाबल नामक राजाओं के दीक्षित होने का उल्लेख है ( १-५४ )' ।
मृगापुत्रीय :
उसकी पटरानी का
सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का राजा राज्य करता था । नाम मृगा था । उसके मृगापुत्र नाम का पुत्र था। एक बार राजकुमार मृगापुत्र अपने प्रासाद के झरोखे में बैठा हुआ नगर की शोभा का निरीक्षण कर रहा था कि उसे एक तपस्वी दिखाई दिया । एकटक दृष्टि से उसे देखते-देखते मृगापुत्र को अपने पूर्वभव का स्मरण हो आया । विषयभोगों के प्रति वैराग्य और संयम में राग धारण करता हुआ अपने माता-पिता के समीप पहुँच कर मृगापुत्र कहने लगा
मृगापुत्र - मैंने पूर्वभव में पाँच महाव्रतों का पालन किया है, नरक और तिर्यच योनि दुःखों से पूर्ण है, इसलिए मैं संसार-समुद्र से विरक्त होना चाहता हूँ । आप मुझे प्रव्रज्या ग्रहण करने की अनुमति प्रदान करें । हे माता-पिता ! विषफल के समान कटु फल देने वाले और निरन्तर दुःखदायी इन विषयों का मैंने यथेच्छ सेवन किया है । असार, व्याधि और रोगों का घर तथा जरा और मरण से व्याप्त इस शरीर में क्षणभर के लिए भी मुझे सुख नहीं मिलता । जैसे घर में आग लगने पर घर का मालिक बहुमूल्य वस्तुओं को निकाल लेता है और असार वस्तुओं को छोड़ देता है, उसी प्रकार जरा और मरण से व्याप्त इस लोक के प्रज्वलित होने पर आपकी आज्ञापूर्वक मैं अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहता हूँ ।
माता-पिता - हे पुत्र ! श्रमण-धर्म का पालन अत्यन्त दुष्कर है । भिक्षु को हजार बातों का ध्यान रखना पड़ता है । सब प्राणियों पर समभाव रखना पड़ता है, शत्रु-मित्र पर समान दृष्टि रखनी पड़ती है और जीवनपर्यन्त प्राणातिपात
१. देखिए – जगदीशचन्द्र जैन, लाइफ इन ऐशियेण्ट इण्डिया, पृ० ३७१-६.
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