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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास स्नान कराना आदि क्रियाएँ नहीं करनी चाहिए (८)। क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक और शिल्पियों की पूजा-प्रशंसा नहीं करनी चाहिए (९)। ब्रह्मचर्य-समाधि :
ब्रह्मचर्य-समाधि के दस स्थान इस प्रकार हैं:-स्त्री, पशु और नपुंसक सहित शयन-आसन का सेवन नहीं करना, स्त्रीकथा नहीं करना, स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना, स्त्रियों को देखकर उनका चिन्तन नहीं करना, पर्दे अथवा दीवाल के पीछे से उनके रुदन, गायन तथा आनन्द, विलाप आदिसूचक शब्दों को नहीं सुनना, गृहस्थाश्रम में भोगे हुए भोगों को स्मरण नहीं करना, पुष्टिकारक आहार का सेवन न करना, मात्रा से अधिक भोजन-पान का ग्रहण नहीं करना, शृंगार नहीं करना, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द आदि इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं होना (१-१०)। पापश्रमणीय
जो निद्राशील भिक्षु बहुत भोजन कर बहुत देर तक सोता रहता है वह पापश्रमण कहा जाता है (३)। जो आचार्य, उपाध्याय आदि से श्रुत और विनय प्राप्त करने के बाद उनकी निन्दा करता है वह पापश्रमण है (४)। संयतीय :
कांपिल्य नगर में बल और वाहन से सम्पन्न संजय नाम का एक राजा रहता था। एक बार वह केशर नामक उद्यान में शिकार खेलने गया। उस समय वहाँ पर स्वाध्याय और ध्यान में संलग्न हुए एक तपस्वी बैठे थे। राजा की दृष्टि तपस्वी पर पड़ी। राजा ने समझा कि उसका बाण मुनिराज को लग गया है। वह झट घोड़े से उतर उनके पास पहुँच क्षमा माँगने लगा। किन्तु ध्यान में संलग्न होने के कारण उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। मुनि महाराज का उत्तर न पा अपना परिचय देते हुए राजा ने उनसे कहा. हे भगवन् ! मैं संयत नाम का राजा हूँ, आपका संभाषण सुनना चाहता हूँ। आपका क्रोध करोड़ों मनुष्यों को भस्म करने में समर्थ है ।
मुनि-हे राजन् ! तू निर्भय हो और आज से तू भी दूसरों को अभयदान दे । इस क्षणभंगुर संसार में तू क्यों हिंसा में आसक्त होता है ? स्त्री, पुत्र, मित्र, बान्धव जीते जी ही साथ देते हैं, मर जाने पर कोई साथ नहीं जाता। जैसे पितृ-वियोग से दुःखी पुत्र पिता के मर जाने पर उसे श्मशान ले जाता है, वैसे ही
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