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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह सुनकर वे ब्राह्मण चिल्लाकर कहने लगे-अरे ! है यहाँ कोई क्षत्रिय, यजमान अथवा अध्यापक जो इस श्रमण की डंडों से मरम्मत कर इसकी गर्दन पकड़ कर निकाल दे ? अपने अध्यापकों के ये वचन सुन बहुत से छात्र दौड़े आये और डंडे, छड़ी और चाबुक आदि से श्रमण को मारने-पीटने लगे। कोशल देश की राजकुमारी भद्रा ने उपस्थित होकर हरिकेश की रक्षा की। -उसके पति रुद्रदेव ब्राह्मण ने ऋषि के पास पहुँच कर उनसे क्षमा माँगी। तत्पश्चात् ब्राह्मणों ने हरिकेश को आहार दिया। हरिकेश ने उन्हें उपदेश द्वारा लाभान्वित किया हे ब्राह्मणो ! यज्ञ-याग करते हुए तुम जल द्वारा शुद्धि की क्यों कामना करते हो ? बाह्य शुद्धि वास्तविक शुद्धि नहीं है, ऐसा पंडितों ने कहा है । कुश, यूप (काष्ठस्तंभ जिसमें यज्ञीय पशु बाँधा जाता है), तृण, काष्ठ, अग्नि तथा सुबहशाम जल का स्पर्श करके तुम प्राणियों का नाश ही करते हो । तप ही वास्तविक अग्नि है, जीव अग्निस्थान है, योग कलछी है, शरीर अग्नि को प्रदीप्त करने वाला साधन है, कर्म ईधन है, संयम शान्तिमन्त्र है-इन साधनों से यज्ञ करना ऋषियों ने प्रशस्त माना है' (१-४७) । चित्त-संभूतीय : चित्त और संभूति पूर्वजन्म में चांडाल पुत्र थे। संभूति ने कांपिल्यपुर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में जन्म लिया और चित्त ने मुनिव्रत धारण किये। ब्रह्मदत्त ने अपने पूर्व जन्म के भ्राता चित्त को मुनि रूप में देख उसे विषय-भोग भोगने का निमंत्रण दिया, लेकिन चित्त ने उल्टा उसे ही उपदेश दिया हे राजन् ! सभी गीत विलाप के समान हैं, नृत्य केवल विडंबना है, आभूषण भाररूप हैं और काम-सुख दुःख पहुँचाने वाले हैं (१६)। पुण्य के फल से ही तू महासमृद्धिशाली हुआ है, इसलिए हे नरेन्द्र ! तू क्षणिक भोगों को त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण कर (२०)। जैसे सिंह मृग को पकड़ कर ले जाता है वैसे ही अंत समय में मृत्यु मनुष्य को पकड़ लेती है। उस समय उसके माता-पिता और भ्राता आदि कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते (२२)। मृत्यु होने के पश्चात् ३. तुलना कीजिए-खासकर उत्तराध्ययन की ६-७, ११, १२, १३, १४, १८ गाथाओं के साथ मातंग जातक की १, ३, ४, ५, ८ गाथाएँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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