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उत्तराध्ययन
१५५ लगे, और जातिमद से उन्मत्त बने, हिंसक, असंयमी और अब्रह्मचारी ब्राह्मण भिक्षु को लक्ष्य करके कहने लगे
बीभत्स रूप वाला, विकराल, मलिन वस्त्रधारी, मैले-कुचैले वस्त्रों को अपने गले में लपेटे यह कौन पिशाच बढ़ा चला आ रहा है ?
ब्राह्मणों ने पूछा
इतना बदसूरत तू कौन है ? किस आशा से यहाँ आया है ? हे मलिन वस्त्रधारी पिशाच ! तू यहाँ से चला जा, यहाँ क्यों खड़ा हुआ है ? । ___ यह सुनकर तिंदुक वृक्ष पर रहने वाला यक्ष अनुकम्पा से महामुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर बोला
'मैं श्रमण हूँ, ब्रह्मचारी हूँ, धन-सम्पत्ति और परिग्रह आदि से विरक्त हूँ, इसलिए अनुद्दिष्ट भोजन ग्रहण करने के लिए यहाँ आया हूँ।
ब्राह्मण-यह भोजन ब्राह्मणों के लिए बनाया गया है, अन्य किसी के लिए नहीं। इस भोजन में से तुझे कुछ नहीं मिल सकता, फिर तू यहाँ क्यों खड़ा हुआ है ?
हरिकेश-किसान लोग ऊँची या नीची भूमि में आशा रखकर बीज बोते हैं । उसी श्रद्धा से तुम भी मुझे भोजन दो और पुण्य समझ कर इस क्षेत्र की आराधना करो।
ब्राह्मण-हम लोग जानते हैं कि कौन सा पुण्यक्षेत्र है और कहाँ दान देने से पुण्य की प्राप्ति होती है। जाति और विद्यासंपन्न ब्राह्मण ही शोभन क्षेत्र हैं। ____ हरिकेश-क्रोध, मान, वध, मृषा, अदत्तादान और परिग्रहसंपन्न तथा जाति और विद्याविहीन ब्राह्मणों को पाप का ही क्षेत्र समझना चाहिए। अरे ! तुम लोग वेदों को पढ़कर भी उनका अर्थ नहीं समझ सके, इसलिए तुम वेदवाणी के केवल भारवाही हो । जो मुनि ऊँच और नीच कुलों में भिक्षा ग्रहण करते हैं वे ही सुक्षेत्र हैं।
ब्राह्मग-हमारे अध्यापकों के विरुद्ध बोलने वाला तू हमारे सामने क्या चक-बक कर रहा है ? भले ही यह भोजन नष्ट हो जाय लेकिन हे निर्ग्रन्थ ! इसमें से हम तुझे रत्ती भर भी न देंगे।
हरिकेश-पाँच समितियों और तीन गुप्तियों से सम्पन्न मुझे यदि तुम यह आहार न दोगे तो फिर इन यज्ञों से क्या लाभ ?
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