SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन इन्द्र-हे क्षत्रिय ! चोर, डाकू, (लोमहर-प्राण अपहरण करने वाला), गिरहकट और तस्करों से अपनी नगरी की रक्षा करके फिर प्रव्रज्या ग्रहण करना। नमि-कितनी ही बार मनुष्य निरर्थक ही दण्ड देते हैं जिससे निरपराधी मारा जाता है और अपराधी छूट जाता है । इन्द्रहे क्षत्रिय ! जिन राजाओं ने तुझे नमस्कार नहीं किया, उन्हें अपने वश में करने के बाद प्रवजित होना। नमि-दुर्जय युद्ध में दस लाख सुभटों को जीतने की अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतना सबसे बड़ी जय है। आत्मा को अपने साथ ही युद्ध करना चाहिए, बाह्य युद्धों से कुछ नहीं होता। अपनी आत्मा को जीतकर ही वास्तविक सुख प्राप्त किया जा सकता है। इन्द्र-हे क्षत्रिय ! विपुल यज्ञों को रचाकर, श्रमण ब्राह्मणों को भोजन करा कर, दान देकर तथा भोगों का उपभोग करने के बाद प्रव्रज्या ग्रहण करना। नमि-जो प्रति मास दस-दस लाख गायों का दान करता है उसकी अपेक्षा कुछ भी न देने वाला संयमी श्रेयस्कर है। इन्द्र-हे क्षत्रिय ! चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता, काँसा, दूष्य, वाहन और कोष में वृद्धि करने के बाद प्रवजित होना। नमि-कैलाश पर्वत के समान सोने-चाँदी के असंख्य पर्वत भी लोभी के लिए पर्याप्त नहीं, क्योंकि इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त होती हैं। यह सुनकर इन्द्र अपने वास्तविक रूप को धारण कर नमि राजर्षि की स्तुति करने लगा और फिर उन्हें नमस्कार कर अन्तर्धान हो गया (१-६२)। द्रुमपत्रक: जैसे पीला पड़ा हुआ वृक्ष का पत्ता समय व्यतीत होने पर झड़ कर गिर पड़ता है, उसी प्रकार मनुष्य जीवन भी क्षणभंगुर है, इसलिए हे गौतम ! क्षण भर भी प्रमाद न कर (१)। जैसे कुश के अग्रभाग पर स्थित ओस की बिन्दु क्षणस्थायी है, वैसे ही मनुष्य जीवन भी क्षणभंगुर है, इसलिए हे गौतम ! क्षण भर. भी प्रमाद न कर (२)। मनुष्य-भव दुर्लभ है जो जीवों को बहुत काल के पश्चात् प्राप्त होता है। कर्मों का विपाक घोर होता है, इसलिए हे गौतप्त ! क्षण भर भी प्रमाद न कर ( ३)। जीव पंचेन्द्रियों की पूर्णता प्राप्त कर सकता है Jain Education International For Private-& Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy