SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नमिप्रव्रज्या : I पूर्व भव का स्मरण करके नमि राजा को बोध प्राप्त हुआ और वे अपने पुत्र को राज्य सौंपकर अभिनिष्क्रमण करने की तैयारी करने लगे । मिथिला नगरी, अपनी सेना, अन्तःपुर और अपने सगे-सम्बन्धियों को छोड़ वे एकान्त में चले गये । उस समय नगरी में बड़ा कोलाहल मच गया । इन्द्र ब्राह्मण का रूप धारण कर वहाँ उपस्थित हुआ और राजर्षि से प्रश्न करने लगा इन्द्र - हे आर्य ! क्या कारण है कि मिथिला नगरी कोलाहल से व्याप्त है और उसके प्रासादों और घरों में दारुण शब्द सुनाई दे रहे हैं ? नमि - मिथिला में शीतल छाया वाला, मनोरम, पत्र- पुष्पों से आच्छादित तथा बहुत से लोगों के लिए लाभदायक एक चैत्य वृक्ष है । वह वृक्ष वायु से कम्पित हो रहा है, इसलिए अशरण होकर आर्त और दुःखी पक्षी क्रन्दन कर रहे हैं | इन्द्र-वायु से प्रदीप्त अग्नि इस घर को भस्म कर रही है । हे भगवन् ! आप का अन्तःपुर जल रहा है, आप क्यों उधर दृष्टिपात नहीं करते ? नमि - हम सुख से रहते हैं, सुख से जीते हैं, हमारा यहाँ कुछ भी नहीं है | मिथिला नगरी के जलने पर मेरा कुछ नहीं जलता' । जिसने पुत्र - कलत्र का त्याग कर दिया है और जो सांसारिक व्यापारों से दूर है, कोई वस्तु प्रिय अथवा अप्रिय नहीं होती । उस भिक्षु के लिए इन्द्र – हे क्षत्रिय ! प्राकार ( किला ), गोपुर, अट्टालिकाएँ, खाई ( उस्सूलग) और शतघ्नी बनवा कर प्रव्रज्या ग्रहण करना । नमि - श्रद्धारूपी नगर, तप और संवररूपी अर्गला ( मूसल ), क्षमारूपी प्राकार, तीन गुप्तिरूपी अट्टालिका- खाई - शतघ्नी, पराक्रमरूपी धनुष, ईर्या ( विवेकपूर्वक गमन ) रूपी प्रत्यञ्चा और धैर्यरूपी धनुष की मूठ बना कर सत्य के द्वारा उसे बाँधना चाहिए, क्योंकि तपरूपी बाण कर मुनि संग्राम में विजयी होकर इस संसार से छूट जाता है । द्वारा कर्मरूपी कवच को भेद १. तुलना कीजिए— महाजनक जातक ( ५३९ ) तथा महाभारत, शान्तिपर्व ( १२.१७८ ) से । प्रोफेसर विन्टरनित्स ने इस तरह के आख्यानों को श्रमण काव्य - साहित्य में सर्वश्रेष्ठ बताया है : देखिए- सम प्रोब्लम्स आफ इंडियन लिटरेचर, पृ० २१ आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy