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________________ उत्तराध्ययन गवाँ दिया ( उसी प्रकार अपने क्षणिक सुख के लिए जीव अपना समस्त भव बिगाड़ लेता है ) (११)। कामभोग कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु के समान हैं। ऐसी हालत में आयु के अल्प होने पर क्यों न कल्याणमार्ग को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाय ( २४ ) ? कापिलीय : अनित्य, क्षणभंगुर और दुःखों से परिपूर्ण इस संसार में ऐसा कौन सा कर्म करूँ, जिससे मैं दुर्गति को प्राप्त न होऊ (१)? पूर्व संयोगों को त्याग कर किसी भी वस्तु में राग न करे । पुत्र-कलत्र आदि में राग न करे । ऐसा भिक्षु सभी दोषों से छूट जाता है (२)। जो लक्षणविद्या, स्वप्नविद्या और अंगविद्या का उपयोग करते हैं, वे श्रमण नहीं कहे जाते-ऐसा आचार्यों ने कहा है (१३)। ज्यों-ज्यों लाभ होता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है । दो मासा सोना मांगने की इच्छा एक करोड़ से भी पूरी नहीं होती (१७)।। १. १४ पूर्वग्रन्थों में गिने जाने वाले विद्यानुवाद नामक पूर्व में विद्याओं का उल्लेख किया गया है। भगवती सूत्र में कहा है कि गोशाल आठ महानिमित्त में कुशल था। पंचकल्प-चूर्णि के उल्लेख से पता लगता है कि आर्य कालक के शिष्य श्रमण-धर्म में स्थिर नहीं रह पाते थे, इसलिए अपने शिष्यों को संयम में स्थिर रखने के हेतु कालक निमित्तविद्या सीखने के लिए आजीविकों के पास गए। भद्रबाहु भी नैमित्तिक माने गये हैं जो मन्त्रविद्या में निष्णात थे। उन्होंने किसी व्यन्तर से संघ की रक्षा करने के लिए उपसर्गहररतोत्र की रचना की थी। आर्य खपुट भी मन्त्रविद्या के ज्ञाता थे। औपपातिक सूत्र में महावीर के शिष्यों को आकाशगामिनी आदि अनेक विद्याओं से सम्पन्न बताया गया है। देखिए-जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ० ३३९-४० । स्थानांग (८. ६०८) में भौम (भूकंप), उत्पात (खून की वृष्टि), स्वप्न, अन्तरीक्ष, अंग (आँख आदि का फरकना), स्वर, लक्षण और व्यञ्जन (तिल, मसा आदि)-ये आठ महानिमित्त बताये गये हैं। केश, दन्त, नख, ललाट, कण्ठ आदि को देखकर शुभ-अशुभ का पता लगाना लक्षणविद्या है। स्वप्नविद्या द्वारा स्वप्न के शुभ-अशुभ का ज्ञान होता है। स्वप्न के लिए देखिए-भगवती सूत्र, १६-६, सुश्रुत, शारीरस्थान ३३। सिर, आंख, ओठ, बाहु आदि के स्फुरण से शुभ-अशुभ का पता लगाना अंगविद्या है । 'अंगविद्या' का सम्पादन मुनि श्री पुण्यविजयजी ने किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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