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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लायमन के अनुसार यह सूत्र उत्तर-बाद का होने से अर्थात् अंग ग्रन्थों की अपेक्षा उत्तर काल का रचा हुआ होने के कारण उत्तराध्ययन कहा जाता है। लेकिन इस ग्रन्थ के टीका-ग्रन्थों से मालूम होता है कि महावीर ने अपने अन्तिम चौमासे में जो बिना पूछे हुए ३६ प्रश्नों के उत्तर दिये, उनके इस ग्रन्थ में संगृहीत होने के कारण इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा। ___ भद्रबाहु की उत्तराध्ययन-नियुक्ति ( ४ ) के अनुसार इस ग्रन्थ के ३६ अध्ययनों में से कुछ अंग-ग्रन्थों से लिए गए हैं, कुछ जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्ररूपित हैं और कुछ संवादरूप में कहे गये हैं। वादिवेताल शान्तिसूरि के अनुसार उत्तराध्ययन सूत्र का परीषद नामक दूसरा अध्ययन, दृष्टिवाद से लिया गया है, द्रुमपुष्पिका नामक दसवाँ अध्ययन महावीर ने प्ररूपित किया है, कापिलीय नामक आठवाँ अध्ययन प्रत्येकबुद्ध कपिल ने प्रतिपादित किया है तथा केशिगौतमीय नामक तेईसवाँ अध्ययन संवादरूप में प्रतिपादित किया गया है।
भद्रबाहु ने इस ग्रन्थ पर नियुक्ति लिखी है और जिनदासगणि महत्तर ने चूर्णि लिखी है। वादिवेताल शान्तिसूरि (मृत्यु सन् १०४०) ने शिष्यहिता टीका और नेमिचन्द्र ने शान्तिसूरि की टीका के आधार से सुखबोधा (सन् १०७३ में समाप्त) टीका लिखी है। इसी प्रकार लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, मुनि जयन्तविजय आदि विद्वानों ने समय-समय पर टीकाएँ लिखी हैं। जाल शान्टियर ने अंग्रेजी प्रस्तावना सहित मूलपाठ का संशोधन किया है । डाक्टर जेकोबी ने 'सेक्रेड बुक्स आफ द ईस्ट' में अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया है। गुजराती में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने 'महावीरस्वामीनो अन्तिम उपदेश' नाम से
उत्तराध्ययन का छायानुवाद किया है। १. इइ पाउकरे बुद्धे नायए परिनिव्वुए।
छत्तीसं उत्तरज्झाए भवसिद्धीय सम्मए ॥ उत्तराध्ययन, ३६.२६८. २. अंगप्पभवा जिणभासिया पत्तेयबुद्धसंवाया।
बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरज्झयणा ॥ ३. उत्तराध्ययनसूत्र-टीका, पृ० ५, उत्तराध्ययन के ३६ अध्यायों के नाम
समवायांग सूत्र में उल्लिखित उत्तराध्ययन के ३६ अध्यायों के नाम से कुछ भिन्न हैं।
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