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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नियुक्ति आवश्यकनियुक्ति के आधार से लिखी गई है। प्रोफेसर विंटरनित्स आदि विद्वानों ने उक्त तीन मूलसूत्रों में पिंडनियुक्ति को सम्मिलित कर मूलसूत्रों की संख्या चार मानी है। कुछ लोग पिंडनियुक्ति के साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र स्वीकार करते हैं । कहीं पर पक्खियसुत्त की गणना मूलसूत्रों में की गई है । मूलसूत्रों का क्रम :
मूलसूत्रों की संख्या की भाँति इनके क्रम में भी गड़बड़ी हुई मालूम होती है । मूलसूत्रों के निम्नलिखित क्रम उल्लेखनीय हैं :
(१) उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक । (२) उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवकालिक, पिंडनियुक्ति। ..
(३) उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिंडनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति।
(४) उत्तराध्ययन, आवश्यक, पिंडनियुक्ति तथा ओधनियुक्ति, दशवैकालिक ।
जैन आगमों में मूलसूत्रों का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। विशेषकर उत्तराध्ययन और दशवैकालिक भाषा और विषय की दृष्टि से अत्यन्त प्राचीन हैं । इन सूत्रों की तुलना सुत्तनिपात, धम्मपद आदि प्राचीन बौद्ध सूत्रों से की गई है। पिंडनियुक्ति और ओपनियुक्ति में साधुओं के आचार-विचार का विस्तृत वर्णन होने के कारण इनसे साधु-संस्था के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है । मूलसूत्रों के निम्नलिखित परिचय से उनके महत्त्व का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रथम मूलसूत्र :
उत्तरज्झयण- उत्तराध्ययनर जैन आगमों का प्रथम मूलसूत्र है। १. आवश्यकनियुक्ति, ६६५; मलयगिरि-टीका, पृ० ३४१. २. ( अ ) अंग्रेजी प्रस्तावना भादि के साथ-Jarl Charpentier,
Upsala, 1922. (भा) अंग्रेजी अनुवाद-H. Jacobi, S. B. E. Series, Vol.
45, Oxford, 1895; Motilal Banarsidass,
Delhi, 1964. (इ) लक्ष्मीवल्लभविहित वृत्तिसहित-भागमसंग्रह,
कलकत्ता, वि० सं० १९३६. (ई ) जयकीर्तिकृत टीकासहित-हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन्
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