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________________ प्रथम प्रकरण उत्तराध्ययन nnnnnnnnnn बारह उपाङ्गों की भाँति मूलसूत्रों का उल्लेख भी प्राचीन आगम ग्रन्थों में नहीं पाया जाता' । ये ग्रन्थ मूलसूत्र क्यों कहे जाते थे, इसका भी स्पष्टीकरण नहीं मिलता । जर्मन विद्वान् जाले शान्टियर के कथनानुसार ये महावीर के कहे हुए सूत्र थे, इसलिए इन्हें मूलसूत्र कहा गया है। लेकिन यह कथन ठीक नहीं मालूम होता । मूलसूत्रों में गिना जाने वाला दशवैकालिक सूत्र शय्यंभवसूरि प्रणीत माना जाता है । डा० शुब्रिङ्ग का कथन है कि इन ग्रन्थों में साधु-जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश होने के कारण इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है। फ्रान्स के विद्वान् प्रो० गेरीनो के अनुसार इन सूत्रों पर अनेक टीका-टिप्पणियाँ लिखी गई हैं, इसलिए इन्हें मूलसूत्र कहा गया है। मूलसूत्रों की संख्या : आगमों की संख्या में मतभेद पाये जाने का उल्लेख बारह उपाङ्गों के प्रकरण में किया जा चुका है । मूलसूत्रों की संख्या में भी मतभेद पाया जाता है । कुछ लोग उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक-इन तीन सूत्रों को ही मूलसूत्र मानते हैं, पिण्डनियुक्ति और ओघनियुक्ति को मूलसूत्रों में नहीं गिनते । इनके अनुसार पिण्डनियुक्ति, दशवैकालिकनियुक्ति के आधार से और ओघ1. सबसे प्रथम भावप्रभसूरि ने जैनधर्मवरस्तोत्र ( श्लोक ३०) की टीका (पृ. ९४ ) में निम्नलिखित मूलसूत्रों का उल्लेख किया है : अथ उत्सराध्ययन १, आवश्यक २, पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति ३, दशवैकालिक ४, इति चत्वारि मूलसूत्राणि ।-प्रो० एच० आर० कापड़िया, हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ दी जैन्स, पृ० ४३ (फुटनोट)। २. जैनतत्त्वप्रकाश (पृ. २१८) में कहा गया है कि ये ग्रन्थ सम्यक्त्व की जड़ को दृढ़ बनाते हैं और सम्यक्त्व में वृद्धि करते हैं, इसलिए इन्हें मूलसूत्र कहा जाता है।-वही, पृ. ४३. भावस्सुवगारित्ता एत्थं दब्बेसणाइ अहिगारो । तीइ पुण अत्थजुत्ती वत्तव्वा पिंडनिज्जुत्ती ॥ २३९ ॥ -हरिभद्रसूरि-वृत्ति, पृ० ३२७-.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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