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________________ निरयावलिका १३३ ने अपने जीते हुए ही सेचनक नामक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों का हार' सौंप दिया था। वेहल्ल अपनी रानियों के साथ हाथी पर सवार होकर गंगा में स्नान करने जाया करता। वह हाथी, किसी रानी को सूंड से अपनी पीठ पर बैठाकर, किसी को कंधे पर बैठाकर, किसी को सूंड़ से ऊपर उछालकर, किसी को अपने दाँतों में पकड़ कर, और किसी के ऊपर जल की वर्षा कर क्रीड़ा किया करता था। राजा कूणिक की रानी पद्मावती को यह देखकर बड़ी ईया हुई । उसने कूणिक से कहा कि यदि हमारे पास सेचनक हस्ती नहीं है तो हमारा सारा राज्य ही व्यर्थ है। रानी के बार-बार आग्रह करने पर एक दिन कुणिक ने वेहल्लकुमार से सेचनक गंधहस्ती और हार माँगा। वेहल्ल ने उत्तर भेजा-यदि तुम मुझे अपना आधा राज्य देने को तैयार हो तो मैं हाथी और हार दे सकता हूँ। लेकिन कूणिक आधा राज्य देने के लिए तैयार न हुआ। - वेहल्लकुमार ने सोचा कि न जाने कूणिक क्या कर बैठे, इसलिये वह हाथी और हार को लेकर वैशाली के राजा अपने नाना चेटक के पास चला गया । कूणिक को जब इस बात का पता चला तो उसे बहुत बुरा लगा। उसने चेटक के पास दूत भेजा कि वेहल को हाथी और हार के साथ वापिस भेज दो। चेटक ने दूत से कहला भेजा-जैसा मेरा नाती कूणिक है वैसा ही वेहल्ल भी है, इसलिए मैं पक्षपात नहीं कर सकता। राजा श्रेणिक ने अपनी जीवितावस्था में ही हाथी और हार का बटवारा कर दिया था, ऐसी हालत में यदि कुणिक आधा राज्य देने को तैयार हो तो उसे हाथी और हार मिल सकते हैं। राजदूत ने वापिस लौटकर कूणिक से सब समाचार कहा । कूणिक ने दूसरी बार दूत भेजा। चेटक ने फिर वही उत्तर देकर उसे लौटा दिया। इस बार कूणिक को बहुत क्रोध आया। उसने दूत से कहा कि तुम चेटक के पादपीठ को बायें पैर से अतिक्रमण कर भाले के ऊपर यह पत्र रखकर देना और कहना कि या तो तीनों चीजें वापिस लौटा दो, नहीं तो युद्ध के लिये तैयार हो जाओ। कूणिक का यह व्यवहार चेटक को बहुत बुरा लगा और उसने दूत को अपमानित कर पिछले द्वार से बाहर निकाल दिया। कूणिक ने काल आदि कुमारों को बुलाकर उन्हें युद्ध के लिये तैयार हो जाने का आदेश दिया । काल आदि कुमारों को साथ लेकर कणिक चातुरंगिणी सेना से सजित हो अंग जनपद को पारकर विदेह जनपद होता हुआ वैशाली नगरी १. सेचनक गंधहस्ती और हार की उत्पत्ति के लिये देखिये--वही, पृ० १७०; उत्तराध्ययनचूर्णि, १, ३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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