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________________ १३, निरयावलिका चेल्लणा के पास पहुँच उससे चिन्ता का कारण पूछा। पहले तो रानी ने कुछ उत्तर नहीं दिया, लेकिन कई बार पूछे जाने पर उसने बताया कि स्वामी ! मुझ अभागिन को आपके उदर का मांस भक्षण करने का दोहद हुआ है। राजा ने चेल्लणा को प्रिय और मनोज्ञ वचनों द्वारा आश्वासन दिया और कहा कि वह दोहद पूर्ण करने का प्रयत्न करेगा। एक दिन राजा श्रेणिक चिन्ता में मग्न अपनी उपस्थानशाला में बैठा हुआ था कि वहाँ अभयकुमार आ अहुँचा। अभयकुमार के पूछने पर राजा ने उसे सब हाल कह दिया। ____ अभयकुमार ने एक विश्वासपात्र नौकर को बुलाकर उससे वधस्थान से कुछ ताजा मांस-रुधिर और उदर-प्रदेश का मांस-लाने को कहा । तत्पश्चात् उसने राजा को एकान्त में सीधा लिटाकर उसके उदर पर लाये हुए मांस और रुधिर को रख उसे ढक दिया। प्रासाद के ऊपर बैठी हुई चेल्लणा यह सब देखती रही। अभयकुमार ने उदर के मांस को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटने का बहाना किया और राजा कुछ देर तक झूठ-मूठ ही मूर्छा में पड़ा रहा। इस प्रकार अभयकुमार की बुद्धिमत्ता से रानी का दोहद पूणे हुआ। फिर भी रानी संतुष्ट न थी। वह सोचा करती कि इस बालक के गर्भ में आने पर उसे अपने पति का मांस-भक्षण करने का दोहद उत्पन्न हुआ है, इसलिये इस अमंगलकारी गर्भ को गिरा देना ही श्रेयस्कर होगा। गर्भपात करने के लिये रानी ने बहुत से उपाय भी किये, लेकिन कुछ न हुआ। धीरे-धीरे नौ महीने बीत गये और चेल्लगा ने पुत्र का प्रसव किया। रानी ने सोचा कि इस बालक के गर्भ में आने पर मुझे अपने पति का मांस-भक्षण करने की इच्छा हुई थी। इसलिये अवश्य ही यह बालक कुल का विध्वंसक होना चाहिये। यह सोचकर उसने अपनी दासी के हाथ नवजात शिशु को एक कूड़ी पर फिंकवा दिया। राजा श्रणिक को जब इसका पता चला तो उसने कड़ी पर से शिशु को उठवा मँगाया और चेल्लणा को बहुत डाँटा-डपटा। कूड़ी पर पड़े हुए शिशु की उँगली में कुक्कुट की पूँछ से चोट लग गई थी, परिणामतः उसकी उँगली कुछ छोटी रह गई इसलिये उसका नाम कूणिक रखा गया ।' १. कूणिक अशोकचन्द्र, वज्जिविदेहपुत्त अथवा विदेहपुत्त नामों से भी प्रसिद्ध था। कहते हैं कि जब कूणिक को असोगणिया नाम के उद्यान में फेंक दिया गया तो वह उयान चमक उठा और इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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