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________________ ९८ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास प्रकार का होता है- अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन ( १८६-१९०)। इन्द्रिय पद : पहले उद्देशक में श्रोत्रेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है (१-२२)। दूसरे उद्देशक में इन्द्रियोपचय, निर्वर्तना (इन्द्रियों की उत्पत्ति), निवर्तना के असंख्यात समय, लन्धि, उपयोग का काल, अल्पबहुत्व में विशेषाधिक उपयोग का काल, अवग्रह, अपाय, ईहा, व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह, अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के आश्रय से जीवों का वर्णन है ( १९१-२०१)। प्रयोग पद: प्रयोग पन्द्रह प्रकार के होते हैं-सत्यमनःप्रयोग, असत्यमनःप्रयोग, सत्य. मृषामनःप्रयोग, असत्यमृषामनःप्रयोग; इसी प्रकार वचनप्रयोग के चार भेद; औदारिकशरीरकायप्रयोग, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, वैक्रियकशरीरकायप्रयोग, वैक्रियकमिश्रशरीरकायप्रयोग, आहारकशरीरकायप्रयोग, आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग तथा तैजसकार्मणशरीरकायप्रयोग (१-५)। गतिप्रपात के पाँच भेद हैं--प्रयोगगति, ततगति, बंधनछेदनगति, उपपातगति और विहायगति (२०२-२०७)। लेश्या पद: . इसके पहले उद्देशक में समकर्म, समवर्ण, समलेश्या, समवेदना, समकिया और समआयु नामक अधिकारों का वर्णन है। दूसरे उद्देशक में कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या के आश्रय से जीवों का वर्णन किया गया है। तीसरे उद्देशक में लेश्यासम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। चौथे उद्देशक में परिणाम, वर्ण, रस, गंध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाढ़, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व नाम के अधिकारों का वर्णन है। साथ ही लेश्याओं के वर्ण और स्वाद का भी वर्णन है। पाँचवें उद्देशक में लेश्या का परिणाम बताया गया है। छठे उद्देशक में किसके कितनी • लेश्याएँ होती हैं, इस विषय का वर्णन है' (२०८-२३१)। १. उत्तराध्ययन में भी ३४३ मध्ययन में लेश्याओं का वर्णन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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