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प्रज्ञापना
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दर्शन-आर्य-सराग दर्शन, वीतराग दर्शन । सराग दर्शन--निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आशारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि, धर्मरुचि । वीतराग दर्शन-उपशांतकषाय, क्षीणकषाय ।
चारित्रार्य-सराग चारित्र, वीतराग चारित्र । सराग चारित्र-सूक्ष्मसंपराय, चादरसंपराय । वीतराग चारित्र-उपशांतकषाय, क्षीणकषाय । अथवा चारित्रार्य पाँच होते हैं-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात चारित्र ( ३७)।।
देव चार प्रकार के होते हैं-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक । भवनवासी-असुरकुमार, नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार | व्यंतरकिंनर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच | ज्योतिषी--
चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा । वैमानिक-कल्पोपग, कल्पोपपन्न । कल्पोपगसौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत । कल्पातीत-ग्रैवेयक, अनुत्तरोपपातिक । अवेयक नौ होते हैं । अनुत्तरोपपातिक पाँच हैं—विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ( ३८)। स्थान पद :
इसमें पृथिवीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यंच, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक और सिद्ध जीवों के वासस्थान का वर्णन है ( ३९-५४)। अल्पबहुत्व पद:
इसमें दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परीत्त, पर्यात, सूक्ष्म, संज्ञी, भव, अस्तिकाय, चरम, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल और महादण्डक-इन २७ द्वारों की अपेक्षा से जीवों का वर्णन है ( ५५-९३)। स्थिति पद :
इसमें नैरयिक, भवनवासी, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वि-त्रि-चतुर पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यंतर, ज्योतिषी, और वैमानिक जीवों की स्थिति का वर्णन है (९४-१०२)।
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