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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
ऐसा प्रतीत होता है कि जिस समय श्रमणसंघ में किस शास्त्र को विशेष महत्त्व दिया जाय व किस शास्त्र को विशेष महत्त्व न दिया जाय, यह प्रश्न उठा तब उसके समाधान के लिए समन्वयप्रिय आगमिक भाष्यकार ने एक साथ उपर्युक्त तीन विशेषताएँ बताकर समस्त शास्त्रों की एवं उन शास्त्रों को मानने वालों की प्रतिष्ठा सुरक्षित रखी । ऐसा होते हुए भी अंग एवं अंगबाह्य का भेद तो बना ही रहा एवं अंगबाह्य सूत्रों की अपेक्षा अंगों की प्रतिष्ठा भी विशेष ही रही ।
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वर्तमान में जो अंग एवं उपांगरूप भेद प्रचलित है वह अति प्राचीन नहीं है । यद्यपि 'उपांग' शब्द चूर्णियों एवं तत्त्वार्थभाष्य जितना प्राचीन है तथापि अमुक अंग का अमुक उपांग है, ऐसा भेद उतना प्राचीन प्रतीत नहीं होता । यदि अंगोपांगरूप भेद विशेष प्राचीन होता तो नंदीसूत्र में इसका उल्लेख अवश्य मिलता । इससे स्पष्ट है कि नन्दी के समय में श्रुत का अंग व उपांगरूप भेद करने की प्रथा न थी अपितु अंग व अनंग अर्थात् अंगप्रविष्ट व अंगबाह्यरूप भेद करने की परिपाटी थी । इतना ही नहीं, नंदीसूत्रकार ने तो वर्तमान में प्रचलित समस्त उपांगों को 'प्रकीर्णक' शब्द से भी सम्बोधित किया है ।
उपांगों के वर्तमान क्रम में पहले औपपातिक आता है, बाद में राज प्रश्नीय आदि, जबकि तत्त्वार्थवृत्तिकार हरिभद्रसूरि तथा सिद्धसेनसूरि के उल्लेखानुसार (अ० १ सू० २० ) पहले राजप्रसेनकीय ( वर्तमान राजप्रश्नीय) व बाद में औपपातिक आदि आते हैं । इससे प्रतीत होता है कि इस समय तक उपांगों का वर्त मान क्रम निश्चित नहीं हुआ था ।
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नंदीसूत्र में निर्दिष्ट अंगबाह्य कालिक एवं उत्कालिक शास्त्रों में वर्तमान में प्रचलित उपांगरूप समस्त ग्रन्थों का समावेश किया गया है । कुछ उपांग कालिक श्रतान्तर्गत हैं व कुछ उत्कालिक श्रतान्तर्गत ।
उपांगों के क्रम के विषय में विचार करने पर मालूम होता है कि यह क्रम अंगों के क्रम से सम्बद्ध नहीं है । जो विषय अंग में हो उसी से सम्बन्धित विषय उसके उपांग में भी हो तो उस अंग और उपांग का पारस्परिक सम्बन्ध बैठ सकता है । किन्तु बात ऐसी नहीं है । षष्ठ अंग ज्ञातधर्मकथा का उपांग जम्बूद्रीपप्रज्ञप्ति कहा जाता है एवं सप्तम अंग उपासकदशा का उपांग चन्द्रप्रज्ञप्ति कहा जाता है जबकि इनके विषयों में कोई समानता अथवा सामंजस्य नहीं है । यही बात अन्य अंगोपांगों के विषय में भी कही जा सकती है । इस प्रकार बारह अंगों का उनके उपांगों के साथ कोई विषयक्य प्रतीत नहीं होता ।
एक बात यह है कि उपांग व अंगबाह्य इन दोनों शब्दों के अर्थ में बड़ा अन्तर "गबाह्य शब्द से ऐसा आभास होता है कि इन सूत्रों का सम्बन्ध अंगों के
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