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________________ ८३ जैन श्रुत साथ नहीं है अथवा बहुत कम है जब कि उपांग शब्द अंगों के साथ सीधा सम्बद्ध हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि अंगबाह्यों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये अथवा अंग के समकक्ष उनके प्रामाण्यस्थापन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए किसी गीतार्थ ने इन्हें उपांग नाम से सम्बोधित करना प्रारम्भ किया होगा । दूसरी बात यह है कि अंगों के साथ सम्बन्ध रखने वाले दशवैकालिक; उत्तराध्ययन आदि सूत्रों को उपांगों में न रख कर औपपातिक से उपांगों की शुरुआत करने का कोई कारण भी नहीं दिया गया है । सम्भव है कि दशवैकालिक आदि विशेष प्राचीन होने के कारण अंगबाह्य होते हुए भी प्रामाण्ययुक्त रहे हों एवं औपपातिक आदि के विषय में एतद्विषयक कोई विवाद खड़ा हुआ हो और इसीलिए इन्हें उपांग के रूप में माना जाने लगा हो । एक बात यह भी है कि ये औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना आदि ग्रन्थ देवधिगणिक्षमाश्रमण के सम्मुख थे ही और इसलिए उन्होंने अंग सूत्रों में जहाँ-तहाँ 'जहा उववाइओ, जहा पन्नवणाओ, जहा जीवाभिगमे' इत्यादि पाठ दिये हैं । ऐसा होते हुए भी 'जहा उववाइअउवांगे, जहा पन्नवणाउवांगे' इस प्रकार 'उपांग' शब्दयुक्त कोई पाठ नहीं मिलता । इससे अनुमान होता है कि कदाचित् देवधिगणिक्षमाश्रमण के बाद ही इन ग्रन्थों को उपांग कहने का प्रयत्न हुआ हो । श्रुत का यह सामान्य परिचय प्रस्तुत प्रयोजन के लिए पर्याप्त है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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