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जैन श्रुत
पायदुर्ग जंघा उरू गायदुगद्धं तु दो य बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो बारसअंगो सुयविसिट्रो॥
-नंदिवृत्ति, पृ० २०२. इस गाथा का स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं :-इह पुरुषस्य द्वादश अङ्गानि भवन्ति तद्यथा-द्वौ पादौ, द्वे जो, द्वे उरुणी, द्वे गात्रार्धे, द्वौ बाह, ग्रीवा, शिरश्च, एवं श्रुतरूपस्य अपि परमपुरुषस्य आचारादीनि द्वादशअङ्गानि क्रमेण वेदितव्यानि · · 'श्रुतपुरुषस्य अंगेषु प्रविष्टम्-अंगभावेन व्यवस्थितमित्यर्थः। यत् पुनरेतस्यैव द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितम्-अंगबाह्यत्वेन व्यवस्थितं तद् अनङ्गप्रविष्टम् ।'
इस प्रकार वृत्तिकार के कथनानुसार श्रुतरूप परमपुरुष के आचारादि बारह अंगों को निम्न रूप से समझा जा सकता है :
आचार व सूत्रकृत श्रुतपुरुष के दो पैर है, स्थान व समवाय दो जंघाएँ हैं, व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा दो घुटने है, उपासक व अंतकृत दो गात्रार्ध हैं ( शरीर का ऊपरी एवं नीचे का भाग अथवा अगला ( पेट आदि ) एवं पिछला ( पीठ आदि ) भाग गात्रार्ध कहलाता है ), अनुत्तरौपपातिक व प्रश्नव्याकरण दो बाहुएँ हैं, विपाकसूत्र ग्रीवा-गर्दन है तथा दृष्टिवाद मस्तक है । ____ तात्पर्य यह है कि आचारादि बारह अंग जैनश्रुत में प्रधान हैं, विशेष प्रतिष्ठित हैं एवं विशेष प्रामाण्य युक्त हैं तथा मूल उपदेष्टा के आशय के अधिक निकट हैं जबकि अनंग अर्थात् अंगबाह्य सूत्र अंगों की अपेक्षा गौण है, कम प्रतिष्ठा वाले हैं एवं अल्प प्रामाण्ययुक्त हैं तथा सूत्र उपचेष्टा के प्रधान आशय के कम निकट हैं ।
विशेषावश्यकभाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अंग-अनंग की विशेषता बताते हुए कहते हैं :
गणहर-थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा ।
धुव-चलविसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ।।५५०॥ अंगश्रुत का सीधा सम्बन्ध गणधरों से है जबकि अनंग-अंगबाह्यश्रुत का सीधा सम्बन्ध स्थविरों से है । अथवा गणधरों के पूछने पर तीर्थंकर ने जो बताया वह अंगश्रुत है एवं बिना पूछे अपने-आप बताया हुआ श्रुत अंगबाह्य है । अथवा जो श्रुत सदा एकरूप है वह अंगश्रुत है तथा जो श्रुत परिवर्तित अर्थात् न्यूनाधिक होता रहता है वह अंगबाह्यश्रुत है । इस प्रकार स्वयं भाष्यकार ने भी अंगबाह्य
की अपेक्षा अंगश्रुत की प्रतिष्ठा कुछ विशेष ही बताई है । Jain Education Sternational
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