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________________ ७९ जैन श्रुत प्रकार निषाद व लुटेरे धनिकों को जंगल में ले जाकर पकड़कर गड्ढे में फेंक देते हैं एवं उनका धन लूट लेते हैं उसी प्रकार ऋत्विज् व पुरोहित यजमानों को गड्ढे में फेंक कर (यज्ञादि द्वारा ) उनका धन लूट लेते हैं । इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि शास्त्रों का विकास निरन्तर होता आया है । जो पद्धतियाँ पुरानी हो गई एवं नये युग व नये संशोधनों के अनुकूल न रहीं वे मिटती गईं तथा उनके बजाय नवयुगानुकूल नवीन पद्धतियाँ व नये विचार आते गये । जैन परम्परा में भी यह प्रसिद्ध है कि अर्हत् पार्श्व के समय में सवस्त्र श्रमणों की परम्परा थी एवं चातुर्याम धर्म था । भगवान् महावीर के समय में नया -संशोधन हुआ एवं अवस्त्र श्रमणों की परम्परा को भी स्थान मिला । साथ ही साथ चार के बजाय पांच याम - पंचयाम की प्रथा प्रारम्भ हुई। इस प्रकार श्रुत अर्थात् शास्त्र परिवर्तन की अपेक्षा से सादि भी है तथा प्रवाह की अपेक्षा से अनादि भी है । इस प्रकार जैसे अमुक दृष्टि से वेद नित्य हैं, अविनाशी हैं, अनादि हैं, अनन्त हैं, अपौरुषेय हैं वैसे ही जैनशास्त्र भी अमुक अपेक्षा से नित्य हैं, अनादि हैं, अनन्त हैं एवं अपौरुषेय हैं । बौद्धों ने तो अपने पिटकों को आदि-अनादि की कोई चर्चा ही नहीं की । भगवान् बुद्ध ने लोगों से स्पष्ट कहा कि यदि आपको ऐसा मालूम हो कि इन शास्त्रों से हमारा हित होता है तो इन्हें मानना अन्यथा इनका आग्रह मत रखना । गमिक - अगमिक, अंगप्रविष्ट - अनंगप्रविष्ट व कालिक - उत्कालिक श्रुत : श्रुत की शैली की दृष्टि से गमिक व अगमिक सूत्रों में विशेषता है | श्रुत के रचयिता के भेद से अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट भेद प्रतिष्ठित हैं । श्रुत के स्वाध्याय के काल की अपेक्षा से कालिक व उत्कालिक सूत्रों में अन्तर है । गमिकश्रुत का स्वरूप समझाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि दृष्टिवाद नामक शास्त्र गमितरूप है एवं समस्त कालिकश्रुत अगभिकश्रुतरूप हैं । गमिक अर्थात् 'गम' युक्त । सूत्रकार ने 'गम' का स्वरूप नहीं बताया है । चूर्णिकार एवं वृत्तिकार 'गम' का स्वरूप बताते हुए कहते हैं :--' - " इह आदिमध्य अवसानेषु किञ्चित् विशेषतः भूयोभूयः तस्यैव सूत्रस्य उच्चारणं गमः । तत्र आदौ 'सुयं मे आउसं तेगं भगवया एवमक्खायं । " इह खलु' ९. यथाह वा इदं निषादा वा सेलगा वा पापकृतो वा वित्तवन्तं पुरुषमरण्ये गृहीत्वा कर्तमन्वन्य वित्तमादाय द्रवन्ति एवमेव ते ऋत्विजो यजमानं कर्तमन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति यमेवंविदो याजयन्ति । - ऐतरेय ब्राह्मण, ८. ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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