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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
क्रान्ति के नये विचार प्रस्तुत करने में लगे हुए हैं । यही कारण है कि उन्होंने hi अपेक्षाभेद से नित्य व अनित्य दोनों माना है ।
श्रुत
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श्रुतसादि अर्थात् आदियुक्त है, इसका तात्पर्य यह है कि शास्त्र में नित्य नई-नई शोधों का समावेश होता ही रहता है । श्रुत अनादि अर्थात् आदिरहित है, इसका तात्पर्य यह है कि नई-नई शोधों का प्रवाह निरन्तर चलता ही रहता है । यह प्रवाह कब व कहाँ से शुरू हुआ, इसके विषय में कोई निश्चित कल्पना नहीं की जा सकती । इसीलिए उसे अनादि अथवा नित्य कहना ही उचित है । इस नित्य का यह अर्थ नहीं कि अब इसमें कोई नई शोध हो ही नहीं सकती । इसीलिए शास्त्रकारों ने श्रुत को नित्य अथवा अनादि के साथ ही साथ अनित्य अथवा सादि भी कहा है । इस प्रकार गहराई से विचार करने पर मालूम होगा कि कोई भी शास्त्र किसी भी समय अक्षरशः वैसा का वैसा ही नहीं रहता । उसमें परिवर्तन होते ही रहते हैं । नये-नये संशोधन सामने आते ही रहते हैं । वह नित्य नया-नया होता रहता है ।
यह कहा जा चुका है कि हमारे देश के प्राचीनतम शास्त्र वेद और अवेस्ता हैं। इसके बाद ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद् व जैनसूत्र तथा बौद्धपिटक हैं । इनके बाद हैं दर्शनशास्त्र । इनमें संशोधन का प्रवाह सतत चला आता है । अवेस्ता अथवा वेद तथा ब्राह्मणों के काल में जो साधन मानी जाती थी वह उपनिषद् आदि के धीरे-धीरे निन्दनीय मानी जाने लगी ।
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उपनिषदों के विचारक कहने लगे कि ये यज्ञ टूटी हुई नाव के समान हैं । जो लोग इन यज्ञों पर विश्वास रखते हैं वे बार-बार जन्म-मरण प्राप्त करते रहते हैं । इन यज्ञों पर विश्वास रखाने वाले व रखने वाले लोगों की स्थिति अंधे के नेतृत्व में चलने वाले अंधों के समान होती है । वे अविद्या में निमग्न रहते हैं, अपने-आप को पंडित समझते हैं एवं जन्म-मरण के चक्कर में घूमते रहते हैं ।
ये विचारक इतना ही कहकर चुप न हुए ।
उन्होंने यहाँ तक कहा कि जिस
येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते
१. प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा एतच्छ्रेयो पुनरेवापि यन्ति ।
२. अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव
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अनुष्ठान- परम्परा स्वर्गप्राप्ति का समय में परिवर्तित होने लगी व
-- मुंडकोपनिषद् १. २. ७. । पण्डितं मन्यमानाः । नीयमाना यथान्धाः ॥
- कठोपनिषद् १. २. ५. ।
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