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________________ ७७ जेन श्रुत गीतोपदेशक भगवान् कृष्ण ने व सांख्य दर्शन के प्रवर्तक क्रांतिकारी कपिल मुनि ने वेदों के हिंसामय अनुष्ठानों को हानिकारक बताते हुए लोगों को वेद विमुख होने के लिए प्रेरित किया । जिस युग में वेदों की प्रतिष्ठा दृढमूल थी एवं समाज उनके प्रति इतना अधिक आसक्त था कि उनसे जरा भी अलग होना नहीं चाहता था उस युग में परमात्मा कृष्ण एवं आत्मार्थी कपिलमुनि ने वेदों की प्रतिष्ठा पर सीधा आघात करने के बजाय अनासक्त कर्म करने की प्रेरणा देकर स्वर्गकामनामूलक यज्ञों पर कुठाराघात किया एवं धर्म के नाम पर चलने वाले हिंसामय व मद्यप्रधान यज्ञादिक कर्मकाण्डों के मार्ग को धूममार्ग कहा । इतना ही नहीं, उपनिषद्कारों ने तो यज्ञ कराने वाले ऋत्विजों को डाकुओं एवं लुटेरों की उपमा दी व लोगों को उनका विश्वास न करने की सलाह दी । फिर भी इनमें से किसी ने वेदों के निरपेक्ष - सर्वथा अप्रामाण्य की घोषणा की हो, ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । — धीरे-धीरे जब वैदिक पुरोहितों का जोर कम पड़ने लगा, क्षत्रियों में भी क्रान्तिकारक पुरुष पैदा होने लगे, गुरुपद पर क्षत्रिय आने लगे एवं समाज की श्रद्धा वेदों से हटने लगी तब जैनों एवं बौद्धों ने भारी जोखिम उठा कर भी वेदों के अप्रामाण्य की घोषणा की। वेदों के अप्रामाण्य की घोषणा करने के साथ ही जैनों ने ग्रंथ प्रणेताओं की परिस्थिति, जीवनदृष्टि एवं अन्तर्वृत्ति को प्रामाण्य का हेतु मानने की अर्थात् वक्ता अथवा ज्ञाता के आन्तरिक गुण-दोषों के आधार पर उसके वचन अथवा ज्ञान के प्रामाण्य - अप्रामाण्य का निश्चय करने की नयी प्रणाली प्रारम्भ की । यह प्रणाली स्वतः प्रामाण्य मानने वालों की पुरानी चली आने वाली परम्परा के लिए सर्वथा नयी थी । यहाँ श्रुत के विषय में जो अनादित्व एवं नित्यत्व की कल्पना की गई है वह स्वतः प्रामाण्य मानने वालों की प्राचीन परम्परा को लक्ष्य में रख कर की गई है । साथ ही श्रुत का जो आदित्व, अनित्यत्व अथवा पौरुषेयत्व स्वीकार किया गया है वह लोगों की परीक्षणशक्ति, विवेकशक्ति तथा संशोधनशक्ति को जाग्रत् करने की दृष्टि से ही, जिससे कोई आत्मार्थी ' तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणः' यों कह कर पिता के कुए में न गिरे अपितु सावधान होकर पैर आगे बढ़ाए । अनेकान्तवाद, विभज्यवाद अथवा स्याद्वाद की समन्वय दृष्टि के अनुसार जैन चल सकने योग्य प्राचीन विचारधारा को ठेस पहुँचाना नहीं चाहते थे । वे यह भी नहीं चाहते कि प्राचीन विचारसरणी के नाम पर बहम, अज्ञान अथवा जड़ता का पोषण हो । इसीलिए वे पहले से ही प्राचीन विचारधारा को सुरक्षित रखते हुए १. देखिये - महावीर वाणी की प्रस्तावना | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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