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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
हिंसक अनुष्ठानों का अग्राह्यत्व सिद्ध किया । उसे प्रकाश का मार्ग न कहते हुए धूम का मार्ग कहा । गोता में भगवान् कृष्ण ने 'यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपिश्चितः' से प्रारम्भ कर 'गुण्यविषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवाऽर्जुन!" तक के वचनों में इसी का समर्थन किया । द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानमय व तपोमय यज्ञ की महिमा बताई एवं समाज को आत्मशोधक यज्ञों की ओर मोड़ने का भरसक प्रयत्न किया । अनासक्त कर्म करते रहने की अत्युत्तम प्रेरणा देकर भारतीय त्यागी वर्ग को अपूर्व शिक्षा दी जैन एवं बौद्ध चिन्तकों ने तप, शम, दम इत्यादि की साधना कर हिंसा - विधायक वेदों के प्रामाण्य का ही विरोध किया एवं उनकी अपौरुषेयता तथा नित्यता का उन्मूलन कर उनके प्रामाण्य को सन्देहयुक्त बना दिया ।
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प्रामाण्य की विचारधारा में क्रान्ति के बीज बोने वाले जैन एवं बौद्ध चितकों ने कहा कि शास्त्र, वचन अथवा ज्ञान स्वतन्त्र नहीं है - स्वयंभू नहीं है अपितु वक्ता की वचनरूप अथवा विचारणारूप क्रिया के साथ सम्बद्ध है । लेखक अथवा वक्ता यदि निस्पृह है, करुणापूर्ण है, शम- दमयुक्त है, समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझने वाला है, जितेन्द्रिय है, लोगों के आध्यात्मिक क्लेशों को दूर करने में समर्थ है, असाधारण प्रतिभासम्पन्न विचारधारा वाला है तो तत्प्रणीत शास्त्र अथवा वचन भी सर्वजनहितकर होता है । उसके उपयुक्त गुणों से विपरीत गुणयुक्त होने पर तत्प्रणीत शास्त्र अथवा वचन सर्वजनहितकर नहीं होता । अतएव शास्त्र, वचन अथवा ज्ञान का प्रामाण्य तदाधारभूत पुरुष पर अवलम्बित है । जो शास्त्र अथवा वचन अनादि माने जाते हैं, नित्य माने जाते हैं अथवा अपौरुषेय माने जाते हैं उनकी भी उपर्युक्त ढंग से परीक्षा किए बिना उनके प्रामाण्य के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता ।
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जैनों ने यह भी स्वीकार किया कि शास्त्र, वचन अथवा ज्ञान अनादि, नित्य अथवा अपौरुषेय अवश्य हो सकता है किन्तु वह प्रवाह - परम्परा की अपेक्षा से, न कि किसी विशेष शास्त्र, वचन अथवा ज्ञान की अपेक्षा से । प्रवाह की अपेक्षा से ज्ञान, वचन अथवा शास्त्र भले ही अनादि, अपौरुषेय अथवा नित्य हो किन्तु उसका प्रामाण्य केवल अनादिता पर निर्भर नहीं है । जिस शास्त्रविशेष का जिस व्यक्ति विशेष से सम्बन्ध हो उस व्यक्ति की परीक्षा पर ही उस शास्त्र का प्रामाण्य निर्भर है । जैनों ने अपने देश में अवश्य ही इस प्रकार का एक नया विचार शुरू किया है, यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा ।
१. अध्याय २, श्लोक ४२-४५.
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