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________________ जैन श्रुत ७५: है-अपौरुषेय हैं अतः उनमें प्रयुक्त शब्दों का अर्थ अथवा निर्वचन लौकिक रीति से लौकिक शब्दों द्वारा मनुष्य कैसे कर सकता है ? इस प्रकार की वेद-रक्षकों की मनोवृत्ति होने के कारण भी संभवतः यास्क इस कार्य को सम्पूर्णतया न कर सके हों । इस निरुक्त के अतिरिक्त वेदों के शब्दों को तत्कालीन अर्थ-सन्दर्भ में समझने का कोई भी साधन न पहले था और न अभी है । सायण नामक विद्वान् ने वेदों पर जो भाष्य लिखा है वह वैदिक शब्दों को तत्कालीन वातावरण एवं संदर्भ की दृष्टि से समझाने में असमर्थ है। ये अर्वाचीन भाष्यकार हैं। इन्होंने अपनी अर्वाचीन परम्परा के अनुसार वेदों की ऋचाओं का मुख्यतः यज्ञपरक अर्थ किया है । यह अर्थ ऐतिहासिक तथा प्राचीन वेदकालीन समाज की दृष्टि से ठीक है या नहीं, इसका वर्तमान संशोधकों को विश्वास नहीं होता । अतः यह कहा जा सकता है कि आज तक वेदों का ठीक-ठीक अर्थ हमारे सामने न आ सका। स्वामी दयानन्द ने वेदों पर एक नया भाष्य लिखा है किन्तु वह भी वेदकालीन प्राचीन वातावरण व सामाजिक परिस्थिति को पूर्णतया समझाने में असमर्थ ही है। वेदाभ्यासी स्वर्गीय लोकमान्य तिलक ने अपनी 'ओरायन' नामक पुस्तक में लिखा है कि अवेस्ता को कुछ कथाएँ वेदों के समझने में सहायक होती हैं ! कुछ संशोधक विद्वान् वेदों को ठोक-ठीक समझने के लिए जंद, अवेस्ता-गाथा तथा वेदकालीन अन्य साहित्य के अभ्यासपूर्ण मनन, चिन्तन आदि पर भार देते हैं । दुर्भाग्यवश कुछ धर्मान्ध राजाओं ने जंद, अवेस्ता-गाथा आदि साहित्य को ही नष्ट कर डाला है । वर्तमान में जो कुछ भी थोड़ा-बहुत साहित्य उपलब्ध है उसे सहीसही अर्थ में समझने की परम्परा अवेस्तागाथा को प्रमाणरूप मानने वाले पारसी अध्वर्यु के पास भी नहीं है और न उस शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित ही विद्यमान हैं। ऐसी स्थिति में वेदों के अध्ययन में रत किसी भी संशोधक विद्वान् को निराशा हाना स्वाभाविक ही है । प्राचीन काल में शास्त्र के प्रामाण्य के लिए अपौरुषेयता एवं अलौकिकता आवश्यक मानी जाती । जो शास्त्र नया होता व किसी पुरुष ने उसे अमुक समय बनाया होता उसकी प्रतिष्ठा अलौकिक तथा अपौरुषेय शास्त्र की अपेक्षा कम होती । सम्भवतः इसीलिए वेदों को अलौकिक एवं अपौरुषेय मानने की प्रथा चालू हुई हो। जब चिन्तन बढ़ने लगा, तर्कशक्ति का प्रयोग अधिक होने लगा एवं हिंसा, मद्यपान आदि से जनता की बरबादी बढ़ने लगी तब वैदिक अनुष्ठानों एवं वेदों के प्रामाण्य पर भारी प्रहार होने लगे। यहाँ तक कि उपनिषद् के चिन्तकों एवं सांख्यदर्शन के प्रणेता कपिल मुनि ने इसका भारी विरोध किया एवं वेदोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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