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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सादिक, अनादिक, सपर्यवसित व अपर्यवसित श्रुत :
आचार्य देववाचक ने नन्दिसूत्र में बताया है कि श्रुत आदिसहित भी है व आदिरहित भी । इसी प्रकार श्रुत अन्तयुक्त भी है व अन्तरहित भी । सादिक अर्थात् आदियुक्त श्रुत वह है जिसका प्रारम्भ अमुक समय में हुआ हो । अनादिक अर्थात् आदिरहित श्रुत वह है जिसका प्रारम्भ करने वाला कोई न हो अर्थात् जो हमेशा से चला आता हो । सपर्यवसित अर्थात् सान्तश्रुत वह है जिसका अमुक समय अन्त अर्थात् विनाश हो जाता है । अपर्यवसित अर्थात् अनन्तश्रुत वह है जिसका कभी अन्त - विनाश न होता हो ।
भारत में सबसे प्राचीन शास्त्र वेद और अवेस्ता हैं । वेदों के विषय में मीमांसकों का ऐसा मत है कि उन्हें किसी ने बनाया नहीं अपितु वे अनादि काल से इसी प्रकार चले आ रहे हैं । अतः वे स्वतः प्रमाणभूत हैं अर्थात् उनकी सचाई किसी व्यक्तिविशेष के गुणों पर अवलम्बित नहीं है । अमुक पुरुष ने वेद बनाये हैं तथा वह पुरुष वीतराग है, सर्वज्ञ है, अनन्तज्ञानी है अथवा गुणों का सागर है इसलिए वेद प्रमाणभूत हैं, यह बात नहीं है । वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् किसी पुरुषविशेषद्वारा प्रणीत नहीं हैं । इसी प्रकार अमुक काल में उनकी उत्पत्ति हुई हो, यह बात भी नहीं । इसीलिए वे अनादि हैं । अनादि होने के कारण ही वे प्रमाणभूत हैं । वेदों की रचना में अनेक प्रकार के शब्द प्रयुक्त हुए । जिस प्रकार इनमें आर्य शब्द हैं उसी प्रकार अनार्य शब्द भी हैं । जो इन दोनों प्रकार के शब्दों का अर्थ ठीक-ठीक जानता व समझता है वही वेदों का अर्थ ठीक-ठीक समझ सकता है । वेद तो हमारे पास परम्परा से चले आते हैं किन्तु उनमें जो अनार्य शब्द प्रयुक्त हुए हैं उनकी विशेष जानकारी हमें नहीं है । ऐसी स्थिति में उनका समग्र अर्थ किस प्रकार समझा जा सकता है ? यही कारण है कि आज तक कोई भारतीय संशोधक सर्वथा तटस्थ रहकर तत्कालीन समाज व भाषा को दृष्टि में रखते हुए वेदों का निष्पक्ष विवेचन न कर सका ।
यद्यपि प्राचीन समय में उपलब्ध साधन, परम्परा, गंभीर अध्ययन आदि का अवलम्बन लेकर महर्षि यास्क ने वेदों के कई शब्दों का निर्वचन करने का उत्तम प्रयास किया है किन्तु उनका यह प्रयास वर्तमान में वेदों को तत्कालीन वातावरण की दृष्टि से समझने में पूर्णरूप से सहायक होता दिखाई नहीं देता । उन्होंने निरुक्त बनाया है किन्तु वह वेदों के समस्त परिचित अथवा अपरिचित शब्दों तक नहीं पहुँच सका । यास्क के समय के वातावरण व पुरोहितों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कदाचित् यास्क की इस प्रवृत्ति का विरोध भी हुआ हो । पुरोहितवर्ग की यही मान्यता थी कि वेद अलौकिक
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