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________________ जेन श्रुत ६१ अति प्राचीन काल से चली आने वाली जैन श्रमणों की चर्या, साधना एवं परिस्थिति का विचार करने पर इस प्रश्न का समाधान स्वतः हो जाता है । जैन श्रमण व शास्त्रलेखन : जैन मुनियों की मन, वचन व काया से हिंसा न करने, न करवाने एवं करते हुए का अनुमोदन न करने की प्रतिज्ञा होती है । प्राचीन जैन मुनि इस प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन करने का प्रयत्न करते थे । जिसे प्राप्त करने में हिंसा की तनिक भी सम्भावना रहती ऐसी वस्तुओं को वे स्वीकार न करते थे । आचारांग आदि उपलब्ध सूत्रों को देखने से उनकी यह चर्या स्पष्ट मालूम होती है । भी उनके लिए 'दोघतपस्सी' (दीर्घतपस्वी) शब्द का प्रयोग करते हैं । इस प्रकार अत्यन्त कठोर आचार-परिस्थिति के कारण ये श्रमण धर्मरक्षा के नाम पर भी अपनी चर्या में अपवाद की आकांक्षा रखने वाले न थे । यही कारण है कि उन्होंने हिंसा एवं परिग्रह की सम्भावना वाली लेखन प्रवृत्ति को नहीं अपनाया । बौद्ध ग्रन्थ यद्यपि धर्म प्रचार उन्हें इष्ट था किन्तु वह केवल आचरण एवं उपदेश द्वारा हो । हिंसा एवं परिग्रह की सम्भावना के कारण व्यक्तिगत निर्वाण के अभिलाषी इन निःस्पृह मुमुक्षुओं ने शास्त्र - लेखन की प्रवृत्ति की उपेक्षा की। उनकी इस अहिंसा -परायणता का प्रतिबिम्ब बृहत्कल्प नामक छेद सूत्र में स्पष्टतया प्रतिबिम्बित है । उसमें स्पष्ट विधान है कि पुस्तक पास में रखनेवाला श्रमण प्रायश्चित्त का भागी होता है (बृहत्कल्प, गा. ३८२१-३८३१, पृ. १०५४ - १०५७) । अतः यह नहीं कहा जा सकता कि भगवान् महावीर के इस उल्लेख से यह भी सिद्ध होता है कि कुछ साधु पुस्तकें रखते भी होंगे । बाद हजार वर्ष तक कोई यह कहा जा सकता है अहिंसा के आचार को भी आगमग्रन्थ पुस्तकरूप में लिखा ही न गया हो । हाँ, कि पुस्तक लेखन की प्रवृत्ति विधानरूप से स्वीकृत न थी । रूढ़रूप से पालने वाले पुस्तकें नहीं लिखते किन्तु जिन्हें ज्ञान से विशेष प्रेम था वे पुस्तकें अवश्य रखते होंगे । ऐसा मानने पर ही अंग के अतिरिक्त समग्र विशाल साहित्य की रचना सम्भव हो सकती है । बृहत्कल्प में यह भी बताया गया है कि पुस्तक पास में रखने वाले श्रमण में प्रमाद- दोष उत्पन्न होता है । पुस्तक पास में रहने से धर्मं-वचनों के स्वाध्याय का आवश्यक कार्य टल जाता है । धर्म वचनों को कंठस्थ रख कर उनका बारबार स्मरण करना स्वाध्यायरूप आन्तरिक तप है । पुस्तकें पास रहने से यह तप मन्द होने लगता है तथा गुरुमुख से प्राप्त सूत्रपाठों को उदात्त अनुदात्त आदि मूल उच्चारणों में सुरक्षित रखने का श्रम भाररूप प्रतीत होने लगता है । परिणामतः सूत्रपाठों के मूल उच्चारणों में परिवर्तन होना प्रारम्भ हो जाता है । इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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