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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास महावीर-निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अर्थात् विक्रम की चौथीपांचवीं शताब्दी में जब वलभी में आगमों को पुस्तकारूढ़ किया गया तब से कंठाग्र-प्रथा धीरे-धीरे कम होने लगी और अब तो यह बिलकुल मंद हो गई है। जिस समय कंठाग्रपूर्वक शास्त्रों को स्मरण रखने की प्रथा चालू थी उस समय इस कार्य को सुव्यवस्थित एवं अविसंवादी रूप से सम्पन्न करने के लिए एक विशिष्ट एवं आदरणीय वर्ग विद्यमान था जो उपाध्याय के रूप में पहचाना जाता था। जैन परम्परा में अरिहंत आदि पाँच परमेष्ठी माने जाते हैं। उनमें इस वर्ग का चतुर्थ स्थान है । इस प्रकार संघ में इस वर्ग की विशेष प्रतिष्ठा है। धर्मशास्त्र प्रारम्भ में लिखे गये न थे अपितु कंठान थे एवं स्मृति द्वारा सुरक्षित रखे जाते थे, इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए शास्त्रों के लिए वर्तमान में प्रयुक्त श्रुति, स्मृति एवं श्रुत शब्द पर्याप्त है। विद्वज्जगत् जानता है कि ब्राह्मण परम्परा के मुख्य प्राचीन शास्त्रों का नाम श्रुति है एवं तदनुवर्ती बाद के शास्त्रों का नाम स्मृति है। श्रुति एवं स्मृति-ये दोनों शब्द रूढ़ नहीं अपितु यौगिक है तथा सर्वथा अन्वर्थक हैं । जैन परम्परा के मुख्य प्राचीन शास्त्रों का नाम श्रुत है। श्रुति एवं स्मृति की हो भाँति श्रुत शब्द भी यौगिक है। अतः इन नामों वाले शास्त्र सुन-सुन कर सुरक्षित रखे गये हैं, ऐसा स्पष्टतया फलित होता है। आचारांग आदि सूत्र 'सुयं मे' आदि वाक्यों से शुरू होते हैं । इसका अर्थ यही है कि शास्त्र सुने हुए हैं एवं सुनते-सुनते चलते आये हैं । प्राचीन जैन आचार्यों ने जो श्रुतज्ञान का स्वरूप बताया है एवं उसके विभाग किये हैं उसके मूल में भी यह 'सुयं' शब्द रहा हुआ है, ऐसा मानने में कोई हर्ज नहीं है। वैदिक परम्परा में वेदों के सिवाय अन्य किसी भी ग्रन्थ के लिए श्रति शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जबकि जैन परम्परा में समस्त शास्त्रों के लिए, फिर चाहे वे प्राचीन हों अथवा अर्वाचीन, श्रुत शब्द का प्रयोग प्रचलित है। इस प्रकार श्रुत शब्द मूलतः यौगिक होते हुए भी अब रूढ़ हो गया है । जैसा कि पहले कहा गया है, हजारों वर्ष पूर्व भी धर्मोपदेशकों को लिपियों तथा लेखन-साधनों का ज्ञान था । वे लेखन-कला में निपुण भी थे। ऐसा होते हुए भी जो जैन धर्मशास्त्रों को सुव्यवस्थित रखने की व्यवस्था करने वाले थे अर्थात् जैन शास्त्रों में काना-मात्रा जितना भी परिवर्तन न हो, इसका सतत ध्यान रखने बाले महानुभाव थे उन्होंने इन शास्त्रों को सुन-सुन कर स्मरण रखने का महान् मानसिक भार क्यों कर उठाया होगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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