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________________ प्रथम प्रकरण जैन श्रुत महान् लिपिशास्त्री श्री ओझाजी का निश्चित मत है कि ताड़पत्र, भोजपत्र, कागज, स्याही, लेखनी आदि का परिचय हमारे पूर्वजों को प्राचीन समय से ही था । ऐसा होते हुए भी किसी भारतीय अथवा एशियाई धर्म-परम्परा के मूलभूत धर्मशास्त्र अधिकांशतया रचना के समय ही ताड़पत्र अथवा कागज पर लिपिबद्ध हुए हों, ऐसा प्रतीत नहीं होता। __ आज से पचीस सौ वर्ष अथवा इससे दुगुने समय पहले के जिज्ञासु अपने-अपने धर्मशास्त्रों को आदर व विनयपूर्वक अपने-अपने गुरुओं द्वारा प्राप्त कर सकते थे । वे इस प्रकार से प्राप्त होनेवाले शास्त्रों को कंठान करते तथा कंठाग्र पाठों को बार-बार स्मरण कर याद रखते । धर्मवाणी के शुद्ध उच्चारण सुरक्षित रहें, इसका वे पूरा ध्यान रखते। कहीं काना, मात्रा, अनुस्वार, विसर्ग आदि निरर्थकरूप से प्रविष्ट न हो जायें अथवा निकल जायँ, इसकी भी वे पूरी सावधानी रखते । अवेस्ता एवं वेदों के विशुद्ध उच्चारणों की सुरक्षा का आवेस्तिक पंडितों एवं वैदिक पुरोहितों ने पूरा ध्यान रखा है । इसका समर्थन वर्तमान में प्रचलित अवेस्ता गाथाओं एवं वेद-पाठों की उच्चारण-प्रक्रिया से होता है । जैन परम्परा में भी आवश्यक क्रियाकाण्ड के सूत्रों की अक्षरसंख्या, पदसंख्या, लघु एवं गुरु अक्षरसंख्या आदि का खास विधान है। सूत्र का किस प्रकार उच्चारण करना, उच्चारण करते समय किन-किन दोषों से दूर रहनाइत्यादि का अनुयोगद्वार आदि में स्पष्ट विधान किया गया है । इससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में भी उच्चारण विषयक कितनी सावधानी रखी जाती थी। वर्तमान में भी विधिज्ञ इसी प्रकार परम्परा के अनुसार सूत्रोच्चारण करते हैं एवं यति आदि का पालन करते हैं। इस प्रकार विशुद्ध रीति से संचित श्रुतसम्पत्ति को गुरु अपने शिष्यों को सौंपते तथा शिष्य पुनः अपनी परम्परा के प्रशिष्यों को सौंपते । इस तरह श्रुत को परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक निरन्तर प्रवाह के रूप में चलती रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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