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________________ ( ५० ) ऐसी ही बात यदि श्वेताम्बर परम्परा में भी हुई हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । उसमें भी सम्पूर्ण नहीं, किन्तु अंग-आगमों का एकदेश सुरक्षित रहा हो और उसे ही संकलित कर सुरक्षित रखा गया हो तो इसमें क्या असंगति है ? दोनों परम्पराओं में अंग-आगमों का जो परिणाम बताया गया है उसे देखते हुए श्वेताम्बरों के अंग-आगम एकदेश ही सिद्ध होते हैं । ये आगम आधुनिक दिगम्बरों को मान्य हों या न हों यह एक दूसरा प्रश्न है । किन्तु श्वेताम्बरों ने जिन अंगों को संकलित कर सुरक्षित रखा है उसमें अंगों का एक अंश -- बड़ा अंश विद्यमान है - इतनी बात में तो शंका का कोई स्थान होना नहीं चाहिए । साथ ही यह भी स्वीकार करना चाहिए कि उन अंगों में यत्र-तत्र प्रक्षेप भी हैं और प्रश्नव्याकरण तो नया ही बनाया गया है । इस चर्चा के प्रकाश में यदि हम निम्न वाक्य जो पं० कैलाशचन्द्र ने अपनी पीठिका में लिखा है उसे निराधार कहें तो अनुचित नहीं माना जायगा । उन्होंने लिखा है -- " और अन्त में महावीरनिर्वाण से ६८३ वर्ष के पश्चात् अंगों का ज्ञान पूर्णतया नष्ट हो गया ।" पीठिका पृ० ५१८ । उनका यह मत स्वयं धवला और जयधवला के अभिमतों से विरुद्ध है और अपनी कल्पना के आधार पर खड़ा किया गया है । श्रुतावतार : श्रुतावतार की परम्परा श्वेताम्बर - दिगम्बरों में एक सी है किन्तु पं० कैलाशचन्द्रजी ने उसमें भी भेद बताने का प्रयत्न किया है । अतएव यहाँ प्रथम दोनों सम्प्रदायों में इसी विषय में किस प्रकार ऐक्य है, सर्व प्रथम इसकी चर्चा करके बाद में पण्डितजी के कुछ प्रश्नों का समाधान करने का प्रयत्न किया जाता है । भगवान् महावीर शासन के नेता थे और उनके अनेक गणधर थे इस विषय में दोनों सम्प्रदायों में कोई मतभेद नहीं । भगवान् महावीर या अन्य कोई तीर्थंकर अर्थ का ही उपदेश देते हैं, सूत्र की रचना नहीं करते इसमें भी दोनों सम्प्रदायों का ऐकमत्य है । श्रुतावतार का क्रम बताते हुए अनुयोगद्धार में कहा गया है "अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे । तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थस्स अणंतरागमे, गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे । तेण परं सुत्तस्स वि अत्थस्स वि णो अत्तागमे, णो अनंतरागमे परंपरागमे ।" अनुयोगद्वार सू० १४४, पृ० २१९ । इसी का पुनरावर्तन निशीथचूर्णि ( पृ०४ ) आदि में भी किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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