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________________ ( ४९ ) आगमों के क्रमिक विच्छेद की चर्चा जिस प्रकार जैनों में है उसी प्रकार बौद्धों के अनागतवंश में भी त्रिपिटक के विच्छेद को चर्चा की गई है । इससे प्रतीत होता है कि श्रमणों की यह एक सामान्य धारणा है कि श्रुत का विच्छेद क्रमशः होता है । तित्थोगाली में अंगविच्छेद की चर्चा है । इस बात को व्यवहारभाष्य के कर्ता ने भी माना है “तित्थोगाली एत्थं वत्तव्वा होइ आणुपुव्वीए । जे तस्स उ अंगस्स वुच्छेदो जहि विणिद्दिट्ठो ||" - व्य० भा० १०.७०४ इससे जाना जा सकता है कि अंगविच्छेद की चर्चा प्राचीन है और यह दिगम्बर - श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में चली है । ऐसा होते हुए भी यदि श्वेताम्बरों ने अंगों के अंश को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया और वह अंश आज हमें उपलब्ध है - यह माना जाय तो इसमें क्या अनुचित है ? एक बात का और भी स्पष्टीकरण जरूरी है कि दिगम्बरों में भी धवला के अनुसार सर्व अंगों का सम्पूर्ण रूप से विच्छेद माना नहीं गया है किन्तु यह माना गया है कि पूर्व और अंग के एकदेशघर हुए हैं और उनकी परम्परा चली है । उस परम्परा के विच्छेद का भय तो प्रदर्शित किया है किन्तु वह परम्परा विच्छिन्न हो गई ऐसा स्पष्ट उल्लेख धवला या जयघवला में भी नहीं है । वहाँ स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वीरनिर्वाण के ६८३ वर्ष बाद भारतवर्ष में जितने भी आचार्य हुए हैं वे सभी “सव्वेसिमंगपुव्वाणमेकदेसधारया जादा" अर्थात् सर्वं अंग-पूर्व के एकदेशघर हुए हैं - जयघवला भा० १, पृ० ८६, धवला पृ० ६७ । तिलोयपत्ति में भी श्रुतविच्छेद की चर्चा है और वहाँ भी आचारांगधारी तक का समय वीरनि० ६८३ बताया गया है । तिलोयपण्णत्ति के अनुसार भी अंग श्रुत का सर्वथा विच्छेद मान्य नहीं है । उसे भी अंग - पूर्व के एकदेशधर के अस्तित्व में सन्देह नहीं है । उसके अनुसार भी अंगवाह्य के विच्छेद का कोई प्रश्न उठाया नहीं गया है । वस्तुतः तिलोयपण्णत्ति के अनुसार श्रुततीर्थ का विच्छेद वीरनि० २०३१७ में होगा अर्थात् तब तक श्रुत का एकदेश विद्यमान रहेगा ही ( देखिए, ४. गा० १४७५ – १४९३ ) 1 तिलोयपण्णत्ति में प्रक्षेप की मात्रा अधिक है फिर भी उसका समय डा० उपाध्ये ने जो निश्चित किया है वह माना जाय तो वह ई० ४७३ और ६०९ के बीच है। तदनुसार भी उस समय तक सर्वथा श्रुतविच्छेद की चर्चा नहीं थी । तिलोय पण्णत्ति का ही अनुसरण घवला में माना जा सकता है। ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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