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प्रथम भगवान् महावीर से भद्रबाहु तक की परम्परा दी गई है और स्थूलभद्र भद्रबाह के पास चौदहपूर्व की वाचना लेने गये इस बात का निर्देश है। यह निर्दिष्ट है कि दसपूर्वधरों में अन्तिम सर्वमित्र थे। उसके बाद निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण के १००० वर्ष बाद पूर्वो का विच्छेद हुआ। यहाँ पर यह ध्यान देना जरूरी है कि यही उल्लेख भगवती सूत्र में ( २.८ ) भी है। तित्थोगाली में उसके बाद निम्न प्रकार से क्रमशः श्रुतविच्छेद की चर्चा की गई हैई० ७२३ = वीर-निर्वाण १२५० में विवाहप्रज्ञप्ति और छः अंगों का विच्छेद ई० ७७३ = ,, १३०० में समवायांग का विच्छेद
१३५० में ठाणांग का १४०० में कल्प-व्यवहार का ,, १५०० में दशाश्रुत का ,
१९०० में सूत्रकृतांग का , ई० १४७३ = , २००० में विशाख मुनि के समय में निशीथ का ,, ई० १७७३ = , २३०० में आचारांग का ,
दुसमा के श्रुत में दुप्पसह मुनि के होने के बाद यह कहा गया है कि वे ही अन्तिम आचारघर होंगे। उसके बाद अनाचार का साम्राज्य होगा। इसके बाद निर्दिष्ट है किई० १९९७३ = वीरनि० २०५०० में उत्तराध्ययन का विच्छेद ई० २०३७३ = ,, २०९०० में दशवकालिक सूत्र का विच्छेद ई० २०४७३ = , २१००० में दशवकालिक के अर्थ का विच्छेद, दुप्पसह
मुनि की मृत्यु के बाद। ई० २०४७३ = पर्यन्त आवश्यक, अनुयोगद्वार और नन्दी सूत्र अव्य
वच्छिन्न रहेंगे।
-तित्थोगाली गा० ६९७-८६६. तित्थोगालीय प्रकरण श्वेताम्बरों के अनुकूल ग्रन्थ है ऐसा उसके अध्ययन से प्रतीत होता है। उसमें तीर्थंकरों की माताओं के १४ स्वप्नों का उल्लेख है गा० १००, १०२४; स्त्री-मुक्ति का समर्थन भी इसमें किया गया है गा. ५५६; आवश्यकनियुक्ति की कई गाथाएँ इसमें आती हैं गा० ७० से, ३८३ से इत्यादि; अनुयोगद्वार और नन्दी का उल्लेख और उनके तीर्थपर्यन्त टिके रहने की बात; दशआश्चर्य की चर्चा गा० ८८७ से; नन्दीसूत्रगत संघस्तुतिका अवतरण गा० ८४८ से है।
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