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________________ ( ४७ ) गुरुमुख से उनकी सम्मति से सुन कर ही करना चाहिए। इससे भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार के पहले ग्रन्थ लिखे जाते थे किन्तु उनका पठन सर्वप्रथम गुरुमुख से होना जरूरी था । यह परम्परा जिनभद्र तक तो मान्य थी ही ऐसा भी कहा जा सकता है । गुरु के मुख से सुनकर अपनी स्मृति का भार हलका करने के लिए कुछ नोधरूप ( टिप्पणरूप आगम प्रारम्भ में लिखे जाते होंगे । यह भी कारण है कि उसका मूल्य उतना नहीं हो सकता जितना श्रुतधर की स्मृति में रहे हुए आगमों का । यह सब अनुमान ही है । किन्तु जब आगम पुस्तकों में लिखे गये थे फिर भी वाचनाओं का महत्त्व माना गया, तो उससे यही अनुमान हो सकता है जो सत्य के निकट है । गुरुमुख से वाचना में जो आगम मिले वही आगम परम्परागत कहा जायेगा | पुस्तक से पढ़ कर किया हुआ ज्ञान, या पुस्तक में लिखा हुआ आगम उतना प्रमाण नहीं माना जायगा जितना गुरुमुख से पढ़ा हुआ । यही गुरुपरम्परा की विशेषता है । अतएव पुस्तक में जो कुछ भी लिखा हो किन्तु महत्व तो उसका है जो वाचक को स्मृति में है । अतएव पुस्तकों में लिखित होने पर भी उसके प्रामाण्य को यदि महत्त्व नहीं मिला तो उसका मूल्य भी कम हुआ । इसी के कारण पुस्तक में लिखे रहने पर भी जब-जब संघ को मालूम हुआ हो कि श्रुतधरों का ह्रास हो रहा है, श्रुतसंकलन के प्रयत्न की आवश्यकता पड़ी होगी और विभिन्न वाचनाएँ हुई होंगी । अब आगमविच्छेद के प्रश्न पर विचार किया जाय । आगमविच्छेद के विषय में भी दो मत हैं। एक के अनुसार सुत्त विनष्ट हुआ है, तब दूसरे के अनुसार सुत्त नहीं किन्तु सुत्तधर - प्रधान अनुयोगधर विनष्ट हुए हैं । इन दोनों मान्यताओं का निर्देश नन्दी चूर्णि जितना तो पुराना है ही । आश्चर्य तो इस बात का है कि दिगम्बर परम्परा के धवला ( पृ० ६५ ) में तथा जयधवला ( पृ० ८३ ) में दूसरे पक्ष को माना गया है अर्थात् श्रुतधरों के विच्छेद की चर्चा प्रधानरूप से की गई है और श्रुतधरों के विच्छेद से श्रुत का विच्छेद फलित माना गया है । किन्तु आज का दिगम्बर समाज श्रुत का ही विच्छेद मानता है । इससे भी सिद्ध है कि पुस्तक में लिखित आगमों का उतना ही महत्त्व नहीं है जितना श्रुतघरों की स्मृति में रहे हुए आगमों का । जिस प्रकार धवला में श्रुतधरों के विच्छेद की बात कही है उसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में श्रुत के विच्छेद की चर्चा की गई है । वह इस प्रकार है १. नन्दी चूर्ण, पृ० ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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