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है-इत्यादि के आधार पर श्री कापडिया ने श्वेताम्बरों के अनुसार अनुपलब्ध आगमों की विस्तृत चर्चा की है। अतएव यहाँ विस्तार अनावश्यक है । निम्न अंग-आगमों का अंश श्वेताम्बरों के अनुसार साम्प्रतकाल में अनुपलब्ध है :
१ आचारांग का महापरिज्ञा अध्ययन, २ ज्ञाताधर्मकथा की कई कथाएँ, ३ प्रश्नव्याकरण का वह रूप जो नन्दी, समवाय आदि में निर्दिष्ट है तथा दृष्टिवाद-इतना अंश तो अंगों में से विच्छिन्न हो गया यह स्पष्ट है । अंगों के जो परिणाम निर्दिष्ट है उसे देखते हुए और यदि वह वस्तुस्थिति का बोधक है तो मानना चाहिए कि अंगों का जो भाग उपलब्ध है उससे कहीं अधिक विलुप्त हो गया है । किन्तु अंगों का जो परिमाण बताया गया है वह वस्तुस्थिति का बोधक हो ऐसा जचता नहीं क्योंकि अधिकांश को उत्तरोत्तर द्विगुण-द्विगुण बताया गया है किन्तु वे यथार्थ में वैसे ही रूप में हों ऐसी सम्भावना नहीं है। केवल महत्त्व समर्पित करने के लिए वैसा कह दिया हो यह अधिक सम्भव है। ऐसी ही बात द्वीप-समुद्रों के परिमाण में भी देखी गई है। वह भी गणितिक सचाई हो सकती है पर यथार्थ से उसका कोई मेल नहीं है।
दिगम्बर आम्नाय जो धवला टीका में निर्दिष्ट है तदनुसार गौतम से सकल श्रुत (द्वादशांग और चौदह पूर्व) लोहार्य को मिला, उनसे जम्बू को। ये तीनों ही सकल श्रुतसागर के पारगामी थे। उसके बाद क्रम से विष्णु आदि पांच आचार्य हए जो चौदह पूर्वधर थे। यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि जब उन्हें चौदह पूर्वधर कहा है तो वे शेष अंगों के भी ज्ञाता थे ही। अर्थात् ये भी सकलश्रुतधर थे। गौतम आदि तीन अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में सर्वज्ञ भी हुए और ये पाँच नहीं हुए, इतना ही इन दोनों वर्गों में भेद है।
उसके बाद विशाखाचार्य आदि ग्यारह आचार्य दस पूर्वघर हुए। तात्पर्य यह है कि सकलश्रु त में से केवल दसपूर्व अंश के ज्ञाता थे, सम्पूर्ण के नहीं। इसके बाद नक्षत्रादि पाँच आचार्य ऐसे हुए जो एकादशांगधारी थे और बारहवें अंग के चौदह पूर्वो के अंशघर ही थे। एक भी पूर्व सम्पूर्ण इन्हें ज्ञात नहीं था। उसके बाद सुभद्रादि चार आचार्य ऐसे हुए जो केवल आचारांग को सम्पूर्ण रूप से किन्तु शेष अंगों और पूर्वो के एक देश को ही जानते थे। इसके बाद सम्पूर्ण आचारांग के धारक भी कोई नहीं हुए और केवल सभी अंगों के एक देश को और सभी पूर्वो के एक देश को जानने वाले आचार्यों की परम्परा चली । यही परम्परा धरसेन तक चलो है ।२
१. केनोनिकल लिटरेचर, प्रकरण ४. २. धवला पु० १, पृ० ६५.६७; जयधवला, पृ० ८३.
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