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वृद्धि के लिए उसमें समय-समय पर उपयोगी पाठ बढ़ते गये हैं । आधुनिक भाषा के पाठ भी उसमें जोड़े गये हैं किन्तु मूल पाठ कौन से थे इसका तो पृथक्करण प्राचीन प्राकृत टीकाओं के आधार पर करना सहज है । और वैसा श्री पं० सुखलालजी ने अपने 'प्रतिक्रमण' ग्रन्थ में किया भी है । अतएव उन पाठों के ही समय का विचार यहाँ प्रस्तुत है । उन पाठों का समय भगवान् महावीर के जीवनकाल के आसपास नहीं तो उनके निर्वाण के निकट या बाद की प्रथम शती में तो रखा जा सकता है ।
पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक की टीका है और वह आचार्य भद्रबाहु की कृति : है । ये भद्रबाहु अधिक सम्भव यह है कि द्वितीय हों । यदि यह स्थिति सिद्ध हो तो उनका समय पाँचवीं शताब्दी ठहरता है ।
नन्दीसूत्र देववाचक की कृति है अतएव उसका समय पाँचवीं छठी शताब्दी हो सकता है । अनुयोगद्वारसूत्र के कर्ता कौन हैं यह कहना कठिन है किन्तु इतना कहा जा सकता है कि वह आवश्यक सूत्र की व्याख्या है अतएव उसके बाद का तो है ही ! उसमें कई ग्रन्थों के उल्लेख हैं । यह कहा जा सकता है कि वह विक्रम पूर्व का ग्रन्थ हैं । यह ग्रन्थ ऐसा है कि सम्भव है उसमें कुछ प्रक्षेप हुए हों । इसकी एक संक्षिप्त वाचना भी मिलती है ।
प्रकीर्णकों में से चउसरण, आउरपञ्चक्खाण और भत्तपरिन्ना —ये तीन वीरभद्र की रचनाएँ हैं ऐसा एक मत है । यदि यह सच है तो उनका समय ई० ९५१ होता है । गच्छाचार प्रकीर्णक का आधार है - महानिशीथ, कल्प और व्यवहार । अतएव यह कृति उनके बाद की हो इसमें सन्देह नहीं है । "
वस्तुस्थिति यह है कि एक-एक ग्रन्थ लेकर उसका बारीकी से अध्ययन करके उसका समय निर्धारित करना अभी बाकी है । अतएव जब तक यह नहीं होता तब तक ऊपर जो समय की चर्चा की गई है वह काम चलाऊ समझी जानी चाहिए | कई विद्वान् इन ग्रन्थों के अध्ययन में लगें तभी यथार्थ और सर्वग्राही निर्णय पर पहुँचा जा सकेगा । जब तक ऐसा नहीं होता तब तक ऊपर जो समय के बारे में लिखा है वह मान कर हम अपने शोधकार्य को आगे बढ़ा सकते हैं । आगम-विच्छेद का प्रश्न :
व्यवहारसूत्र में विशिष्ट आगम-पठन की योग्यता का जो वर्णन है ( दशम उद्देशक ) उस प्रसंग में निर्दिष्ट आगम तथा नन्दी और पाक्षिकसूत्र में जो आगम-सूची दी है तथा स्थानांग में प्रासंगिक रूप से जिन आगमों का उल्लेख
१. कापडिया - केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ५२.
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