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सम्भव नहीं था। अपराजितसूरि ने सातवीं-आठवीं शती में उसकी टीका भी लिखी थी । उससे पूर्व नियुक्ति, चूणि आदि टीकाएँ भी उस पर लिखी गई हैं। पाँचवींछठी शती में होने वाले आचार्य पूज्यपाद ने (सर्वार्थसिद्धि, १.२०) भी दशवैकालिक का उल्लेख किया है और उसे प्रमाण मानना चाहिए ऐसा भी कहा है। उसके विच्छेद की कोई चर्चा उन्होंने नहीं की है। घवला (१० ९६) में भी अंगबाह्य रूप से दशवकालिक का उल्लेख है और उसके विच्छेद की कोई चर्चा नहीं है । दशवकालिक में चूलाएँ बाद में जोड़ी गई हैं यह निश्चित है किन्तु उसके जो दस अध्ययन हैं जिनके आधार पर उसका नाम निष्पन्न है वे तो मौलिक ही हैं । ऐसी परिस्थिति में उन दस अध्ययनों के कर्ता तो शय्यम्भव हैं ही और जो समय शय्यम्भव का है वही उसका भी है । शय्यम्भव वीर नि. ७५ से ९० तक युगप्रधान पद पर रहे हैं अतएव उनका समय ई० पू० ४५२ से ४२९ है। इसी समय के बीच दशवैकालिक की रचना आचार्य शय्यम्भव ने की होगी ।
उत्तराध्ययन किसी एक आचार्य की कृति नहीं है किन्तु संकलन है। उत्तराध्ययन का उल्लेख अंगबाह्य रूप से धवला ( पृ० ९६ ) और सर्वार्थसिद्धि में (१.२०) है । उसपर नियुक्ति-चूणि टीकाएँ प्राकृत में लिखी गई है। इसी कारण उसकी सुरक्षा भी हुई है। उसका समय जो विद्वानों ने माना है वह है ई० पू० तीसरी-चौथी शती।'
आवश्यक सूत्र तो अंगागम जितना ही प्राचीन है। जैन निर्ग्रन्थों के लिए प्रतिदिन करने की आवश्यक क्रिया सम्बन्धी पाठ इसमें हैं । अंगों में जहाँ स्वाध्याय का उल्लेख आता है वहाँ प्रायः यह लिखा रहता है कि 'सामाइयाइणि एकादसंगाणि' (भगवती सूत्र ९३, ज्ञाता ५६, ६४; विपाक ३३); 'सामाइयमाइयाई चोद्दसपुव्वाई' (भगवती सूत्र ६१७, ४३२; ज्ञाता० ५४, ५५, १३०)। इससे सिद्ध होता है कि अंग से भी पहले आवश्यक सूत्र का अध्ययन किया जाता था । आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन सामायिक है। इस दृष्टि से आवश्यक सूत्र के मौलिक पाठ जिन पर नियुक्ति, भाष्य, विशेषावश्यक-भाष्य, चूणि आदि प्राकृत टीकाएँ लिखी गई हैं वे अंग जितने पुराने होंगे। अंगबाह्य आगम के भेद आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त-इस प्रकार किये गये हैं। इससे भी इसका महत्त्व सिद्ध होता है। आवश्यक के छहों अध्ययनों के नाम धवला में अंगबाह्य में गिनाये हैं। ऐसी परिस्थिति में आवश्यक सूत्र की प्राचीनता सिद्ध होती ही है । आवश्यक चूँकि नित्यप्रति करने की क्रिया है अतएव ज्ञानवृद्धि और ध्यान
१. डॉक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१.
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