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________________ ३. परिशिष्ट आगमों का प्रकाशन व संशोधन एक समय था जब धर्मग्रन्थों के लिखने का रिवाज न था। उस समय धर्मपरायण आत्मार्थी लोग धर्मग्रन्थों को कंठस्थ कर सुरक्षित रखते एवं उपदेश द्वारा उनका यथाशक्य प्रचार करने का प्रयत्न करते थे । शारीरिक और सामाजिक परिस्थिति में परिवर्तन होने पर जैन निर्ग्रन्थों ने अपवाद का आश्रय लेते हुए भी आगमादि ग्रन्थों को ताडपत्रादि पर लिपिबद्ध किया। इस प्रकार के लिखित साहित्य की सुरक्षा के लिए भारत में जैनों ने जो प्रयत्न, परिश्रम और अर्थव्यय किया है वह बेजोड़ है। ऐसा होते हुए भी हस्तलिखित ग्रन्थों द्वारा अध्ययन-अध्यापन तथा प्रचारकार्य उतना नहीं हो सकता जितना कि होना चाहिए । मुद्रण युग का प्रादुर्भाव होने पर प्रत्येक धर्म के आचार्य व गृहस्थ सावधान हुए एवं अपने-अपने धर्मसाहित्य को छपवाने का प्रयत्न करने लगे। तिब्बती पंडितों ने मुद्रणकला का आश्रय लेकर प्राचीन साहित्य की सुरक्षा की। वैदिक व बौद्ध लोगों ने भी अपने-अपने धर्मग्रन्थों को छपवा कर प्रकाशित किया। जैनाचार्यों व जैन गृहस्थों ने अपने आगम ग्रन्थों को प्रकाशित करने का उस समय कोई प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने आगम-प्रकाशन में अनेक प्रकार की धार्मिक बाधाएँ देखीं । कोई कहता कि छापने से तो आगमों की आशातना अर्थात् अपमान होने लगेगा। कोई कहता कि छापने से वह साहित्य किसी के भी हाथ में पहँचेगा, जिससे उसका दुरुपयोग भी होने लगेगा। कोई कहता कि आगमों को छापने में आरम्भ-समारम्भ होने से पाप लगेगा। कोई कहता कि छपने पर तो श्रावक लोग भी आगम पढ़ने लगेंगे जो उचित नहीं है। इस प्रकार विविध दृष्टियों से समाज में आगमों के प्रकाशन के विरुद्ध वातावरण पैदा हुआ। ऐसा होते हुए भी कुछ साहसी एवं प्रगतिशील जैन अगुओं ने आगमसाहित्य का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्हें परम्परागत अनेक रूढ़ियों को भंग करना पड़ा। __ अजीमगंज, बंगाल के बाबू धनपतसिंह जी को आगमों को मुद्रित करवाने का विचार सर्वप्रथम सूझा । उन्होंने समस्त आगमों को टबों के साथ प्रकाशित किया। जैसा कि सुना जाता है, इसके बाद श्री वीरचन्द राघवजी को प्रथम सर्वधर्मपरिषद् में चिकागो भेजनेवाले विजयानन्दसूरिजी ने भी आगम-प्रकाशन को सहारा दिया एवं इस कार्य को करनेवालों को प्रोत्साहित किया। सेठ भीमसिंह माणेक ने भी आगम-प्रकाशन की प्रवृत्ति प्रारम्भ की एवं टीका व अनुवाद के साथ एक-दो आगम निकाले । विदेश में जर्मन विद्वानों ने 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट' ग्रंथमाला के अन्तर्गत तथा अन्य रूप में आचारांग, सूत्रकृतांग, निशीष, कल्पसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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