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________________ परिशिष्ट २८५. अनुयोगद्वार, स्थानांग व विशेषावश्यकभाष्य सम्बन्धित अनेक संदर्भ और अवतरण घवला टीका में उपलब्ध होते हैं । एतद्विषयक विशेष जानकारी तद्-तद् भाग के परिशिष्ट देखने से हो सकती है । अचेलक परम्परा के मूलाचार ग्रंथ के status के सप्तम अधिकार में आनेवाली १९२ वीं गाथा की वृत्ति में आचार्य वसुनंदी स्पष्ट लिखते हैं कि एतद्विषयक विशेष जानकारी आचारांग से कर लेनी चाहिए : आचाराङ्गात् भवति ज्ञातव्यः | यह आचारांगसूत्र वही है जो वर्तमान में सचेलक परम्परा में विद्यमान है । मूलाचार में ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जो आवश्यक नियुक्ति की गाथाओं से काफी मिलती-जुलती हैं । इनकी व्याख्या में पीछे से होनेवाले संकुचित परम्पराभेद अथवा पारस्परिक सम्पर्क के अभाव के कारण कुछ अन्तर अवश्य दृष्टिगोचर होते हैं । इस प्रकार अचेलक परम्परा की साहित्यसामग्री देखने से स्पष्ट मालूम पड़ता है कि इस परम्परा में भी उपलब्ध अंग आदि आगमों को सुप्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ है । आग्रह का अतिरेक होने पर विपरीत परिस्थिति का जन्म हुआ एवं पारस्परिक सम्पर्क तथा स्नेह का ह्रास होता गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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