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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
विद्यमान प्रश्नव्याकरण में न तो उपर्युक्त विषय ही हैं और न ४५ अध्ययन ही । इसमें हिंसादिक पाँच आस्रवों तथा अहिंसादिक पाँच संवरों का दस अध्ययनों में निरूपण है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रश्नव्याकरण का दोनों 'जैन परम्पराओं में उल्लेख है वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । इसका अर्थ यह हुआ कि विद्यमान प्रश्नव्याकरण बाद में होनेवाले किसी गीतार्थ पुरुष की रचना है । वृत्तिकार अभयदेव सूरि लिखते हैं कि इस समय का कोई अनधिकारी मनुष्य चमत्कारी विद्याओं का दुरुपयोग न करे, इस दृष्टि से इस प्रकार की सब विद्याएँ इस सूत्र में से निकाल दी गईं एवं उनके स्थान पर केवल आस्रव व संवर का समावेश कर दिया गया । यहाँ एक बात विचारणीय है "कि जिन भगवान् ज्योतिष आदि चमत्कारिक विद्याओं एवं इसी प्रकार की अन्य आरंभ-समारंभपूर्ण विद्याओं के निरूपण को दूषित प्रवृत्ति बतलाते हैं । ऐसी स्थिति में प्रश्नव्याकरण में चमत्कारिक विद्याओं का निरूपण जिन प्रभु कैसे किया होगा ?
प्रश्नव्याकरण का प्रारंभ इस गाथा से होता है :
२७०
जंबू ! इणमो अण्ड्य-संवरविणिच्छयं पवयणस्स । नीसंदं वोच्छामि णिच्छयत्थं सुहासियत्थं महेसीहि ॥ अर्थात् हे जम्बू ! यहाँ महर्षिप्रणीत प्रवचनसाररूप आस्रव व संवर का निरूपण करूंगा ।
गाथा में जंबू का नाम तो है किन्तु 'महर्षियों द्वारा सुभाषित' शब्दों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसका निरूपण केवल सुधर्मा द्वारा नहीं हुआ है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि विषय की दृष्टि से यह सूत्र पूरा ही नया हो गया है। जिसका कर्ता कोई गीतार्थ पुरुष हो सकता है ।
असत्यवादी मत :
सूत्रकार ने असत्यभाषक के रूप में निम्नोक्त मतों के नामों का उल्लेख
किया है।
:
१. नास्तिकवादी अथवा वामलोकवादी - चार्वाक
२. पंचस्कन्धवादी बौद्ध
३. मनोजीववादी- -मन को जीव माननेवाले
४. वायुजीववादी - प्राणवायु को जीव माननेवाले
५. अंडे से जगत् की उत्पत्ति माननेवाले
६. लोक को स्वयंभू कृत माननेवाले ७. संसार को प्रजापतिनिर्मित माननेवाले
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