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________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति २४७ वर्धमान महावीर का तीर्थ कितने समय तक चलेगा? उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, इक्ष्वाकुकुल, ज्ञातकुल और कोरवकुल के व्यक्ति इस धर्म में प्रवेश करते हैं तथा उनमें से कुछ मुक्ति भी प्राप्त करते हैं। यहां क्षत्रियों के केवल छः कुलों का ही निर्देश है । इससे यह मालूम होता है कि ये छः कुल उस समय विशेष उत्कृष्ट गिने जाते रहे होंगे। नवम उद्देशक में चारण मुनियों की चर्चा है। चारण मुनि दो प्रकार के हैं : विद्याचारण और जंघाचारण । उन तप से प्राप्त होने वाली आकाशगामिनी विद्या का नाम विद्याचारण लब्धि है। जंघाचरण भी एक प्रकार की लब्धि है जो इसी प्रकार के तप से प्राप्त होती है । इन लब्धियों से सम्पन्न मुनि आकाश में उड़कर बहुत दूर तक जा सकते हैं । दशम उद्देशक में यह बताया गया है कि कुछ जीवों का आयुष्य आघातजनक विघ्न से टूट जाता है जबकि कुछ का इस प्रकार का विघ्न होने पर भी नहीं टूटता। इक्कीसवें, बाईसवें व तेईसवें शतक में विविध प्रकार की वनस्पतियों एवं वृक्षों के विषय में चर्चा है । चौबीसवें शतक में चौबीस उद्देशक हैं। इनमें उपपात, परिमाण, संघयण, ऊँचाई, संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, संज्ञा, कषाय, इंद्रिय, समुद्घात्, वेदना, वेद, आयुष्य, अध्यवसान, अनुबंध एवं कालसंवेध पदों द्वारा समस्त प्रकार के जीवों का विचार किया गया है। पचीसवें शतक में लेश्या, द्रव्य, संस्थान, युग्म, पर्यव, निग्रन्थ, श्रमण, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी नामक बारह उद्देशक है। इनमें भी जीवों के विविध स्वरूप के विषय में चर्चा है। निम्रन्थ नामक षष्ठ उद्देशक में निम्नोक्त ३६ पदों द्वारा निर्ग्रन्थों के विषय में विचार किया गया है : १. प्रज्ञापना, २. वेद, ३. राग, ४. कल्प, ५. चारित्र, ६. प्रतिसेवना, ७. ज्ञान, ८. तोर्थ, ९. लिंग, १०. शरीर, ११. क्षेत्र, १२. काल, १३. गति, १४. संयम, १५. निकर्षनिगास अथवा संनिगास-संनिकर्ष, १६. योग, १७. उपयोग, १८. कषाय, १९. लेश्या, २०. परिणाम, २१. बंध, २२. वेदन, २३. उदीरणा, २४. उपसंपदाहानि, २५. संज्ञा, २६. आहार, २७. भव, २८. आकर्ष, २९. काल, ३०. अंतर, ३१. समुद्घात, ३२. क्षेत्र, ३३. स्पर्शना ३४. भाव, ३५. परिमाण, एवं ३६. अल्पबहुत्व । यहां निग्रन्थों के पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रन्थ एवं स्नातक के रूप में पांच भेद कर प्रत्येक भेद का उपर्युक्त ३६ पदों द्वारा विचार किया गया है। यहां यह बताया गया है कि बकुश एवं कुशील किसी अपेक्षा से जिनकल्पी भी होते है। निग्रन्थ तथा स्नातक कल्पातीत होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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