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________________ २३८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह संग्राम वैदिक देवासुर संग्राम का अनुकरण प्रतीत होता है । संग्राम का जो कारण बताया गया है वह अत्यन्त विलक्षण है। इससे यह भी फलित होता है कि इन्द्र जैसा सबल एवं समर्थ व्यक्ति भी किस प्रकार काषायिक वृत्तियों का शिकार बनकर पामर प्राणो की भाँति आचरण करने लगता है। स्वर्ग की जो घटनाएँ बार-बार आती है उन्हें पढ़ने से यह मालूम होता है कि स्वर्म के प्राणी कितने अधम, चोर, असदाचारी एवं कलहप्रिय होते हैं। इन सब घटनाओं का अर्थ यही है कि स्वर्ग वांछनीय नहीं है अपितु मोक्ष वांछनीय है। शुद्ध संयम का फल निर्वाण है जबकि दूषित संयम से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । स्वर्ग का कारण यज्ञादि न होकर अहिंसाप्रधान आचरण ही है । स्वर्ग भी निर्वाण प्राप्ति में एक बाधा है जिसे दूर करना आवश्यक है। इस प्रकार जैन निर्ग्रन्थों ने स्वर्ग के स्थान पर मोक्ष को प्रतिष्ठित कर हिंसा अथवा भोग के बजाय अहिंसा अथवा त्याग की प्रतिष्ठा की है। स्वर्ग : स्वर्ग के वर्णन में वस्त्र, अलंकार, ग्रंथ, पात्र, प्रतिमाएं आदि उल्लिखित हैं । विमानों की रचना में विविध रत्नों, मणियों एवं बहुमूल्य पदार्थों का उपयोग बताया गया है। इसी प्रकार स्तम्भ, वेदिका, छप्पर, द्वार, खिड़की, झूला, खूटी आदि का भी उल्लेख किया गया है। ये सब चीजें स्वर्ग में कहाँ से आती है ? क्या यह इसी संसार के पदार्थों की कल्पित नकल नहीं है ? स्वर्ग लौकिक आनन्दोपभोग एवं विषयविलास की उत्कृष्टतम सामग्री की उच्चतम कल्पना का श्रेष्ठतम नमूना है। भगवान महावीर के समय में एक मान्यता यह थी कि युद्ध करने वाले स्वर्ग में जाते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति (शतक ७, उद्देशक ९) में इस सम्बन्ध में बताया गया है कि संग्राम करने वाले को संग्राम करने से स्वर्ग प्राप्त नहीं होता अपितु न्यायपूर्वक संग्राम करने के बाद जो संग्रामकर्ता अपने दुष्कृत्यों के लिए पश्चात्ताप करता है तथा उस पश्चात्ताप के कारण जिसकी आत्मा शुद्ध होती है वह स्वर्ग में जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि केवल संग्राम करने से किसी को स्वर्ग मिल जाता है। गीता (अध्याय २, श्लोक ३७) के 'हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम्' का रहस्योद्घाटन व्याख्याप्रज्ञप्ति के इस कथन में कितने सुंदर ढंग से किया गया है । देवभाषा: महावीर के समय में भाषा के सम्बन्ध में भी बहुत मिथ्याधारणा फैली हुई थी। अमुक भाषा देवभाषा है और अमुक भाषा अपभ्रष्ट भाषा है तथा देवभाषा बोलने से पुण्य होता है और अपभ्रष्ट भाषा बोलने से पाप होता है, इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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