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________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति २३७ लगता है तब ये उनके पास जाकर उनका उपदेश सुनकर उनके शिष्य हो जाते हैं । ग्यारह अंग पढ़कर अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। परिव्राजक तापस: जैसे इस सूत्र में कई तापसों का वर्णन आता है वैसे ही औपपातिक सूत्र में परिव्राजक तापसों के अनेक प्रकार बताये गये हैं, यथा-अग्निहोत्रीय, पोत्तियलुंगी पहनने वाले, कोत्तिय-जमीन पर सोने वाले, जन्नई-यज्ञ करने वाले, हुंबउट्ठ-कुंडी रखने वाले श्रमण, दंतुक्खलिय-दांतों से कच्चे फल खाने वाले, उम्मज्जग-केवल डुबकी लगाकर स्नान करने वाले, संमज्जग-बार-बार डुबकी लगाकर स्नान करने वाले, निमज्जग-स्नान के लिए पानी में लम्बे समय तक पड़े रहने वाले, संपक्खालग-शरीर पर मिट्टी घिस कर स्नान करने वाले, दक्खिणकूलग-गंगा के दक्षिणी किनारे रहने वाले, उत्तरकूलग-गंगा के उत्तरी किनारे रहने वाले, संखधमग-अतिथि को खाने के लिए निमन्त्रित करने हेतु शंख फूकने वाले, कूलघमग--किनारे पर खड़े रह कर अतिथि के लिए आवाज लगाने वाले, मियलुद्धय-मृगलुब्धक, हस्तितापस-हाथी को मारकर उससे जीवननिर्वाह करने वाले, उदंडक-दण्ड ऊँचा रखकर फिरने वाले, दिशाप्रोक्षक-पानी द्वारा दिशा का प्रोक्षणकर-फल लेने वाले, वल्कवासी-वल्कल पहनने वाले चेलवासीकपड़ा पहनने वाले, वेलवासी-समुद्र-तट पर रहने वाले, जलवासी-पानी में बैठे रहने वाले, बिलवासी--बिलों में रहने वाले, बिना स्नान किए न खाने वाले, वृक्षमूलिक--वृक्ष के मूल के पास रहने वाले, जलभक्षी केवल पानी पीने वाले, वायुभक्षी-केवल हवा खाने वाले, शैवालभक्षी, मूलाहारी, कंदाहारी त्वगाहारी फलाहारी, पुष्पाहारी, बीजाहारो, पंचाग्नि तपने वाले आदि । यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि ये कन्दहारी तापस भी मर कर स्वर्ग में जाते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में शिवराजर्षि की ही तरह स्कन्द, तामिल, पूरण, पुद्गल आदि तापसों का भी वर्णन आता है। इसमें दानामा और प्राणामा रूप दो तापसी दीक्षाओं का भी उल्लेख है । दानामा अर्थात् भिक्षा लाकर दान करने के आचारवाली प्रव्रज्या और प्राणामा अर्थात् प्राणिमात्र को प्रणाम करते रहने की प्रव्रज्या । इन तापसों में से कुछ ने स्वर्ग प्राप्त किया है तथा कुछ ने इन्द्रपद भी पाया है । इससे यह फलित होता है कि स्वर्ग प्राप्ति के लिए कष्टमय तप की आवश्यकता है न कि यज्ञयागादि की। यह बताने के लिए प्रस्तुत सूत्र में बार-बार देवों व असुरों का वर्णन दिया गया है। इसी दृष्टि से सूत्रकार ने देवासुर संग्राम का वर्णन भी किया है । इस संग्राम में देवेन्द्र शक्र से भयभीत हुआ असुरेन्द्र चमर भगवान् महावीर की शरण में जाने के कारण बच जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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