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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अर्थात् ग्रीष्मऋतु में वनस्पतिकायिक जीव कम से कम आहार ग्रहण करते हैं । यह कथन वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से विचारणीय है। इसी उददेशक में आगे बताया गया है कि आलू आदि अनन्त जीववाले वनस्पतिकायिक है। यहाँ मूल में 'आलुअ' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह आलू अथवा आलुक नामक वनस्पति वर्तमान में प्रचलित आल से मिलती-जुलती एक भिन्न प्रकार की वनस्पति मालूम पड़ती हैं क्योंकि उस समय भारत में आलू की खेती होती थी अथवा नहीं, यह निश्चित नहीं है। प्रसंगवशात् यह कहना भी अनुचित न होगा कि आलू मूंगफली की ही तरह डालियों पर लगने के कारण कंदमूल में नहीं गिने जा सकते। भगवान् ऋषभदेव के जमाने में युगलिक लोग कंदाहारी-मूलाहारी होते थे फिर भी वे स्वर्ग में जाते थे। क्या वे कंद और मूल वर्तमान कंद व मूल से भिन्न तरह के होते थे? वस्तुतः सद्गति का सम्बन्ध मूलगुणों के पालन से अर्थात् जीवनशुद्धि से है, न कि कंदादि के भक्षण और अभक्षण से । जीव की समानता :
सातवें शतक के आठवें उद्देशक में भगवान् ने बताया है कि हाथी और कुंथु का जीव समान है। विशेष वर्णन के लिए सूत्रकार ने रायपसेणइज्ज सूत्र देखने की सूचना दी है। रायपसेणइज्ज में केशिकुमार श्रमण ने राजा पएसी के साथ आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व के विषय में चर्चा की है। उस प्रसंग पर एक प्रश्न के उत्तर में दीपक के प्रकाश का उदाहरण देकर हाथी और कुथु के जीव की समानता समझाई गई है। इससे जीव की संकुचन-प्रसारणशीलता सिद्ध होती है। केवली:
छठे शतक के दसवें उद्देशक में एक प्रश्न है कि क्या केवली इंद्रियों द्वारा जानता है, देखता है ? उत्तर में बताया गया है कि नहीं, ऐसा नहीं होता। अठारहवें शतक के सातवें उद्देशक में एक प्रश्न है कि जब केवली के शरीर में यक्ष का आवेश आता है तब क्या वह अन्यतीथिकों के कथनानुसार दो भाषाएँ-असत्य और सत्यासत्य बोलता है ? इसका उत्तर देते हुए बताया गया है कि अन्यतीथिकों का यह कथन मिथ्या है। केवली के शरीर में यक्ष का आवेश नहीं आता अतः यक्ष के आवेश से आवेष्टित होकर वह इस प्रकार की दो भाषाएँ नहीं बोलता। केवली सदा सत्य और असत्यमृषा-इस प्रकार की दो भाषाएं बोलता है। श्वासोच्छ्वास
द्वितीय शतक के प्रथम उद्देशक में प्रश्न है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की तरह क्या पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय
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