SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति २३३ इस उल्लेख से यह स्पष्ट मालूम होता है कि श्रमण भगवान् महावीर व श्रमण भगवान् पार्श्वनाथ की परम्पराओं के बीच विशेष भेद था । इनके साधु एक-दूसरे की मान्यताओं से अपरिचित थे । इनमें परस्पर वंदन व्यवहार भी न था । सूत्रकृतांग के वीरस्तुति अध्ययन में स्पष्ट बताया गया है कि भगवान् - महावीर ने स्त्रीत्याग एवं रात्रिभोजन विरमण रूप दो नियम नये बढ़ाये थे । पांचवें शतक में भी पाश्र्वापत्य स्थविरों की चर्चा आती है । उसमें यह -बताया गया है कि पावपत्य भगवान् महावोर के पास आकर बिना वंदनानमस्कार किये ही अथवा अन्य किसी प्रकार से विनय का भाव दिखाये बिना ही उनसे पूछते हैं कि असंख्येय लोक में रात्रि व दिवस अनन्त होते हैं अथवा परिमित ? भगवान् दोनों विकल्पों का उत्तर हाँ में देते हैं । इसका अर्थ यह है कि असंख्य लोक में रात्रि व दिवस अनन्त भी होते हैं और परिमित भी । तब वे पावपत्य भगवान् से पूछते हैं कि यह कैसे ? इसके उत्तर में महावीर कहते हैं कि आपके पुरुषादानीय पार्श्व अहंत् ने लोक को शाश्वत कहा है, अनादि कहा है, अनन्त कहा है तथा परिमित भी कहा है । इसलिए उसमें रात्रि - दिवस अनन्त भी होते हैं तथा परिमित भी । यह सुनकर उन पाश्र्वापत्यों ने भगवान् महावीर को सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी के रूप में पहचाना, उन्हें वन्दना - नमस्कार किया एवं उनकी परम्परा को स्वीकार किया । इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि भगवान् महावीर व पार्श्वनाथ एक ही परम्परा के तीर्थंकर हैं, यह तथ्य पाश्वपत्यों को ज्ञात न था । इसी प्रकार का एक उल्लेख नवें शतक में भी आता है । गांगेय नामक पावपत्य अनगार ने बिना वंदना - नमस्कार किये हो भगवान् महावीर से नरकादि विषयक कुछ प्रश्न पूछे जिनका महावीर ने उत्तर दिया। इसके बाद ही गांगेय - से भगवान् को सर्वज्ञ सर्वदर्शी के रूप में पहचाना । इसके पूर्व उन्हें इस बात का पता न था अथवा निश्चय न था कि महावीर तीर्थंकर हैं, केवली हैं । वनस्पतिकाय: शतक सातवें व आठवें में वनस्पतिसम्बन्धी विवेचन है। सातवें शतक के - तृतीय उद्देशक में बताया गया है कि वनस्पतिकाय के जीव किस ऋतु में अधिक से अधिक आहार ग्रहण करते हैं व किस ऋतु में कम से कम आहार लेते हैं ? प्रावृऋतु में अर्थात् श्रावण भाद्रपद में तथा वर्षाऋतु मे अर्थात् आश्विन - कार्तिक में वनस्पतिकायिक जीव अधिक से अधिक आहार लेते हैं । शर ऋतु, हेमंत ऋतु, वसन्त ऋतु एवं ग्रीष्मऋतु में इनका आहार उत्तरोत्तर कम होता जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy