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________________ २३२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पापित्य पाश्वनाथ की परम्परा के श्रमणों अर्थात् पापित्यों द्वारा पूछे गये कुछ प्रश्न प्रस्तुत सूत्र में संगृहीत हैं । कालासवेसियपुत्त नामक पाश्र्वापत्य भगवान् महावीर के शिष्यों से कहते हैं कि हे स्थविरों ! आप लोग सामायिक नहीं जानते, सामायिक का अर्थ नहीं जानते, प्रत्याख्यान नहीं जानते, प्रत्याख्यान का अर्थ नहीं जानते, संयम नहीं जानते, संयम का अर्थ नहीं जानते, संवर व संवर का अर्थ नहीं जानते, विवेक व विवेक का अर्थ नहीं जानते, व्युत्सर्ग व व्युत्सर्ग का अर्थ नहीं जानते । यह सुनकर महावीर के शिष्य कालासवेसियपुत्त से कहते है कि हे आर्य! हम लोग सामायिक आदि व सामायिक आदि का अर्थ जानते है । यह सुन कर पापित्य अनगार ने उन स्थविरों से पूछा कि यदि आप लोग यह सब जानते हैं तो बताइए कि सामायिक आदि क्या है व सामायिक आदि का अर्थ क्या है ? इसका उत्तर देते हुऐ वे स्थविर कहने लगे कि अपनी आत्मा सामायिक है व अपनी मात्मा ही सामायिक का अर्थ है। इसी प्रकार आत्मा ही प्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान का अर्थ है, इत्यादि । यह सुनकर पार्वापत्य अनगार ने पूछा कि यदि ऐसा है तो फिर आप लोग क्रोध, मान, माया व लोभ का त्याग करने के बाद इनकी गर्हा--निन्दा क्यों करते हैं ? इसके उत्तर में स्थविरों ने कहा कि संयम के लिए हम क्रोधादि की गर्दा करते हैं। यह सुन कर कालासवेसियपुत्त ने पूछा कि गहीं संयम है या अगहों ? स्थविरों ने कहा कि गर्दा संयम है, अगहीं संयम नहीं। गही समस्त दोषों को दूर करती है एवं उसके द्वारा हमारी आत्मा संयम में स्थापित होती है। इससे आत्मा में संयम का उपचय अर्थात् संग्रह होता है। यह सब सुनकर कालासवेसियपुत्त को संतोष हुआ और उन्होंने महावीर के स्थविरों को वंदन किया, नमन किया व यह स्वीकार किया कि सामायिक से लेकर व्युत्सर्ग तथा गीं तक के सब पदों का मुझे ऐसा ज्ञान नहीं है। मैंने इस विषय में ऐसा विवेचन भी नहीं सुना है । इन सब पदों का मुझे ज्ञान नहीं है, अभिगम नहीं है अतः ये सब पद मेरे लिए अदृष्ट है, अश्रुतपूर्व हैं, अस्मृतपूर्व हैं, अविज्ञात हैं, अव्याकृत हैं, अपथक्कृत है, अनुद्धृत हैं, अनवधारित है। इसीलिए जैसा आपने कहा वैसी मुझे श्रद्धा न थी, प्रतीति न थी, रुचि न थी। अब आपकी बताई हुई सारी बातें मेरी समझ में आ गई है एवं वैसी ही मेरी श्रद्धा, प्रतीति व रुचि हो गई है । यह कह कर कालासवेसियपुयत्त ने उन स्थविरों की परम्परा में मिल जाने का अपना विचार व्यक्त किया। स्थविरों की अनुमति से वे उनमें मिल गये एवं नग्नभाव, मुडभाव, अस्नान, अदन्तधावन, अछत्र, अनुपानहता ( जूते का त्याग ), भूमिशय्या, ब्रह्मचर्यवास, केशलोच, भिक्षाग्रहण आदि नियमों का पालन कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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