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________________ स्थानांग व समवायांग २२३ कांपिल्य, मिथिला, कौशांबी और राजगृह । वृत्तिकार ने इनसे सम्बन्धित देशों के नाम इस प्रकार बताये हैं : अंग, शूरसेन, काशी, कुणाल, कोशल, कुरु, पांचाल, विदेह, वत्स और मगध । वृत्तिकार ने यह भी लिखा है कि श्रमण-श्रमणियों को ऐसी राजधानियों में उत्सर्ग के तौर पर अर्थात् सामान्यतया महीने में दो-तीन बार अथवा इससे अधिक प्रवेश नहीं करना चाहिए क्योंकि वहाँ यौवनसम्पन्न रमणीय वारांगनाओं एवं अन्य मोहक तथा वासनोत्तेजक सामग्री के दर्शन से अनेक प्रकार के दूषणों को संभावना रहती है। वृत्तिकार ने यह एक विशेष महत्त्वपूर्ण बात लिखी है जिसकी ओर वर्तमानकालीन श्रमणसंघ का ध्यान आकृष्ट होना अत्यावश्यक है। राजधानियाँ तो अनेक हैं किन्तु यहाँ दस की विवक्षा के कारण दस ही नाम गिनाये गये हैं। वृष्टि : इसी अंग के सू० १७६ में अल्पवृष्टि एवं महावृष्टि के तीन-तीन कारण बतलाये गये हैं : १. जिस देश अथवा प्रदेश में जलयोनि के जीव अथवा पुद्गल अल्प मात्रा में हों वहाँ अल्पवृष्टि होती है। २. जिस देश अथवा प्रदेश में देव, नाग, यक्ष, भूत आदि की सम्यग् आराधना न होती हो वहाँ अल्पवृष्टि होती है। ३. जहाँ से जलयोनि के पुद्गलों अर्थात् बादलों को वायु अन्यत्र खींच ले जाता है अथवा बिखेर देता है वहाँ अल्पवृष्टि होती है। इनसे ठीक विपरीत तीन कारणों से बहुवृष्टि अथवा महावृष्टि होती है। यहां बताये गये देव, नाग, यक्ष, भूत आदि को आराधना रूप कारण का वृष्टि के साथ क्या कार्यकारण सम्बन्ध है, यह समझ में नहीं आता। सम्भव है, इसका सम्बन्ध वैदिक परम्परा की उस मान्यता से हो जिसमें यज्ञ द्वारा देवों को प्रसन्न कर उनके द्वारा मेघों का प्रादुर्भाव माना जाता है। इस प्रकार इन दोनों अंगों में अनेक विषयों का परिचय प्राप्त होता है । वृत्तिकार ने अति परिश्रमपूर्वक इन पर विवेचन लिखा है। इससे सूत्रों को समझने में बहुत सहायता मिलती है । यदि यह वृत्ति न होती तो इन अंगों को सम्पूर्णतया समझना अशक्य नहीं तो भी दुःशक्य तो अवश्य होता। इस दृष्टि से वृत्तिकार की बहुश्रुतता, प्रवचनभक्ति एवं अन्य परम्परा के ग्रन्थों का उपयोग की वृत्ति विशेष प्रशंसनीय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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