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________________ स्थानांग व समवायांग २२१ देश में था। इस लिपि में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश में अशोक के एक-दो शिलालेख मिलते हैं। गधे के होठ को खरोष्ठ कहते हैं। कदाचित् इस लिपि के मोड़ का सम्बन्ध गधे के होठ के साथ हो और इसीलिए इसका नाम खरोष्ठी खरोष्ठिका अथवा खरोष्ट्रिका पड़ा हो । खरश्राविता अर्थात् सुनने में कठोर लगने वाली । संभवतः इस लिपि का उच्चारण कर्ण के लिए कठोर हो जिससे इसका नाम खरघाविता प्रचलित हुआ हो । पकारादिका जिसका प्राकृत रूप पहाराइआ अथवा पाराइआ है, संभवतः पकार से प्रारंभ होती हो जिससे इसका यह नाम पड़ा हो । निह्ननविका का अर्थ है सांकेतिक अथवा गुप्तलिपि । कदाचित् यह लिपि विशेष प्रकार के संकेतों से निर्मित हुई हो। अंकों से निर्मित लिपि का नाम अंकलिपि है। गणितशास्त्र सम्बन्धी संकेतों की लिपि को गणितलिपि कहते हैं। गांधर्वलिपि अर्थात गंधों की लिपि एवं भूतलिपि अर्थात् भूतों की लिपि । संभवतः गंधर्व जाति में काम में आने वाली लिपि का नाम गांधर्वलिपि एवं भूतजाति में अर्थात् भोट याने भोटिया लोगों में अथवा भूटान के लोगों में प्रचलित लिपि का नाम भूतलिपि पड़ा हो। कदाचित् पैशाची भाषा की लिपि भूतलिपि हो। आदर्श लिपि के विषय में कुछ ज्ञात नहीं हुआ है । माहेश्वरों को लिपि का नाम माहेश्वरोलिपि है। वर्तमान में माहेश्वरी नामक एक जाति है। उसके साथ इस लिपि का कोई सम्बन्ध है या नहीं, यह अन्वेषणीय है। द्रविड़ों की लिपि का नाम द्राविड़लिपि है। पुलिदलिपि शायद भील लोगों को लिपि हो। शेष लिपियों के विषय में कोई विशेष बात मालूम नहीं हुई है। लिपिविषयक मूल पाठ की अशुद्धि के कारण भी एतद्विषयक विशेष कठिनाई सामने आती है। बौद्धग्रंथ ललितविस्तर में चौसठ लिपियों के नाम बताये गये हैं। इन एवं इस प्रकार के अन्यत्र उल्लिखित नामों के साथ इस पाठ को मिलाकर शुद्ध कर लेना चाहिए। समवायांग, सू. ४३ में ब्राह्मी लिपि में उपयोग में आने वाले अक्षरों की संख्या ४६ बताई है। वृत्तिकार ने इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हुए बताया है कि ये ४६ अक्षर अकार से लगाकर क्ष सहित हकार तक के होने चाहिए । इनमें ऋ, ऋ, ल, लू और ळ ये पांच अक्षर नहीं गिनने चाहिए। यह ४६ की संख्या इस प्रकार है : ऋ, ऋ, ल और लू इन चारों स्वरों के अतिरिक्त अ से लगाकर अः तक के १२ स्वर; क से लगाकर म तक के २५ स्पर्शाक्षर; य, र, ल और व ये ४ अंतस्थ; श, ष, स और ह ये ४ उष्माक्षर; १क्ष = १२ + २५ + ४+४+ १ = ४६ । अनुपलब्ध शास्त्र: स्थानांग व समवायांग में कुछ ऐसे जैनशास्त्रों के नाम भी मिलते हैं जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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