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जैन साहित्य का बृहद इतिहास
- स्थविर :
सू० ७६१ में दस प्रकार के स्थविरों का उल्लेख है : १. ग्रामस्थविर, २. नगरस्थविर, ३. राष्ट्रस्थविर, ४. प्रशास्तास्थविर, ५. कुलस्थविर, ६. गणस्थविर, ७ संघस्थविर, ८ जातिस्थविर, ९ श्रुतस्थविर, १०. पर्यायस्थविर |
ग्राम की व्यवस्था करने वाला अर्थात् जिसका कहना सारा गाँव माने वैसा शक्तिशाली व्यक्ति ग्रामस्थविर कहलाता है । इसी प्रकार नगरस्थविर एवं राष्ट्रस्थविर की व्याख्या समझनी चाहिए। लोगों को धर्म में स्थिर रखने वाले धर्मोपदेशक प्रशास्तास्थविर कहलाते हैं । कुल, गण एवं संघ की व्यवस्था करने वाले कुलस्थविर, गणस्थविर एवं संघस्थविर कहलाते हैं । साठ अथवा -साठ से अधिक वर्ष की आयु वाले वयोवृद्ध जातिस्थविर कहे जाते हैं । स्थानांग आदिश्रुत के धारक को श्रुतस्यविर कहते हैं । जिसका दीक्षा पर्याय बीस वर्ष का हो गया हो वह पर्यायस्थविर कहलाता है । अन्तिम दो भेद जैन परिभाषा - -सापेक्ष हैं । ये दस भेद प्राचीन काल की ग्राम, नगर, राष्ट्र, कुल, गण आदि की व्यवस्था के सूचक हैं |
लेखन पद्धति :
बताये गये हैं जो
समवायांग, सू० १८ में लेखन पद्धति के अठारह प्रकार ब्राह्मी लिपि के अठारह भेद हैं । इन भेदों में ब्राह्मो को भी गिना गया है। जिसके कारण भेदों की संख्या उन्नीस हो गई है । इन भेदों के नाम इस प्रकार हैं : १. ब्राह्मी, २. यावनी, ३. दोषोपकरिका, ४. खरोष्ट्रका, ५. खरश्राविता, ६. पकारादिका, ७. उच्चत्तरिका, ८. अक्षर पृष्ठिका, ९.
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भोगवतिका, १० वैणयिका, ११. निह्नविका, १२. अंकलिपि, १३. गणितलिपि, १४. गांधर्वलिपि, १५. भुतलिपि, १६. आदर्शलिपि, १६. माहेश्वरी - लिपि, १८. द्राविड लिपि, १९. पुलिंद लिपि । वृत्तिकार ने इस सूत्र की टीका करते हुए लिखा है कि इन लिपियों के स्वरूप के विषय में किसी प्रकार का विवरण उपलब्ध नहीं हुआ अतः यहाँ कुछ न लिखा गया : एतत्स्वरूपं न दृष्टं, -इति न दर्शितम् ।
वर्तमान में उपलब्ध साधनों के आधार पर लिपियों के विषय में इतना कहा जा सकता है कि अशोक के शिलालेखों में प्रयुक्त लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि है । यावनीलिपि अर्थात् यवनों की लिपि । भारतीय लोगों से भिन्न लोगों की लिपि यावनी लिपि कहलाती है; यथा अरबी, फारसी आदि । खरोष्ठी लिपि दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर बाईं ओर लिखी जाती है इस लिपि का प्रचार गांधार
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