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________________ जैन साहित्य का बृहद इतिहास नहीं हो सकता । इसीलिए इस वाद-विवाद का सम्बन्ध गोशालक के अनुयायी भिक्षुओं के साथ जोड़ा गया है जो उचित ही है । आगे बौद्धभिक्षुओं के साथ वाद-विवाद है । इसमें तो बुद्ध शब्द ही आया है । साथ ही बौद्धपरिभाषा के पदों का प्रयोग भी हुआ है । यह वाद-विवाद बयालीसवीं गाथा तक है । इसके बाद ब्रह्मव्रती ( त्रिदण्डी ) का वाद-विवाद आता है । यह इकावनवीं गाथा तक है अन्तिम चार गाथाओं में हस्तितापस का वाद विवाद है । ब्रह्मव्रती को नियुनिकार नेत्रदण्डी कहा है जब कि वृत्तिकार ने एकदण्डी भी कहा है । त्रिदण्डी हो अथवा एकदण्डी सभी ब्रह्मव्रती वेदवादी हैं । इन्होंने आर्हतमत को वेदबाह्य होने के कारण अप्राह्य माना है । हस्तितापस सम्प्रदाय का समावेश प्रथम श्रुतस्कन्धान्तर्गत कुशील नामक सातवें अध्ययन में वर्णित असंयमियों में होता है । इस सम्प्रदाय के मतानुसार प्रतिदिन खाने के लिए अनेक जीवों की हिंसा करने के बजाय एक बड़े हाथी को मारकर उसे पूरे वर्ष तक खाना अच्छा है । ये तापस इसी प्रकार अपना जीवन निर्वाह करते थे अतः इनका 'हस्तितापस' नाम प्रसिद्ध हुआ । नालंदा : सातवें अध्ययन का नाम नालंदीय है । यह सूत्रकृतांग का अन्तिम अध्ययन हे । राजगृह के बाहर उत्तर-पूर्व अर्थात् ईशानकोण में स्थित नालंदा की प्रसिद्धि जितनी जैन आगमों में है उतनी ही बौद्ध पिटकों में भी है । नियुक्तिकार ने 'नालंदा' पद का अर्थ बताते हुए कहा है कि न + अलं + दा इस प्रकार तीन शब्दों से बनने वाला नालंदा नाम स्त्रीलिंग का है । दा अर्थात् देना - दान देना, न अर्थात् नहीं और अलं अर्थात् बस । इन तीनों अर्थों का संयोग करने पर जो अर्थ निकलता है वह यह है कि जहाँ पर दान देने की बात पर किसी की ओर से बस नहीं हैना नहीं है अर्थात् जिस जगह दान देने के लिए कोई मना नहीं करता उस जगह का नाम नालंदा है । लेने वाला चाहे श्रमण हो अथवा ब्राह्मण, आजीवक हो अथवा परिव्राजक सबके लिए यहाँ दान सुलभ है। किसी के लिए किसी की मनाही नहीं है । कहा जाता है कि राजा श्रेणिक तथा अन्य बड़े-बड़े सामंत सेठ आदि नरेन्द्र यहाँ रहते थे अतः इसका नाम 'नारेन्द्र' प्रसिद्ध हुआ । मागधी उच्चारण की प्रक्रिया के अनुसार 'नारेन्द्र' का 'नालेन्द्र' और बाद में ह्रस्व होने पर नालिंद तथा 'इ' का 'अ' होने पर नालंद होना स्वाभाविक है। नालंदा की यह व्युत्पत्ति विशेष उपयुक्त मालूम होती है । । २०८ उदक पेढालपुत्त : नालंदा में लेव नामक एक उदार एवं विश्वासपात्र गृहस्थ रहता था। वह जैनपरम्परा एवं जैनधर्म का असाधारण श्रद्धालु था । उसके परिचय के लिए सूत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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