________________
१९८
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बनाया हुआ शिष्य दीक्षाशिष्य कहलाता है । इसी प्रकार शिक्षा देकर अर्थात् सूत्रादि सिखाकर बनाया हुआ शिष्य शिक्षाशिष्य कहलाता है । आचार्य अर्थात् गुरु के भी शिष्य को ही तरह दो भेद हैं : दीक्षा देने वाला गुरु-दीक्षा गुरु और शिक्षा देने वाला गुरु-शिक्षागुरु । प्रस्तुत अध्ययन में यह बताया गया है कि इस प्रकार के गुरु और शिष्य कैसे होने चाहिए, उन्हें कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए, उनके कर्तव्य क्या होने चाहिए ? इसमें २७ गाथाएं हैं । अध्ययन की प्रारम्भिक गाथा में हो 'ग्रन्थ' शब्द का प्रयोग है। बीसवीं गाथा में 'ण याऽसियावाय वियागरेज्जा' ऐसा उल्लेख है। इसका अर्थ यह है कि भिक्षु को किसी को आशीर्वाद नहीं देना चाहिए। यहां 'आशिष' शब्द का प्राकृत रूप 'आसिया' अथवा 'आसिआ' हुआ है, जैसे 'सरित्' शब्द का प्राकृतरूप 'सरिया' अथवा 'सरिआ' होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने इसके लिए स्पष्ट नियम बनाया है जो स्त्रियाम् आत् अविद्युतः' ( ८.१.१५ ) सूत्र से प्रकट होता है। ऐसा होते हुए भी कुछ विद्वान् इसका अर्थ यों करते हैं कि भिक्षु को अस्याद्वादयुक्त वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । यह ठोक नहीं । प्रस्तुत गाथा में स्याद्वाद अथवा अस्याद्वाद का कोई उल्लेख नहीं है और न वहां इस प्रकार का कोई प्रसंग ही है । वृत्तिकार ने भी इसका अर्थ आशीर्वाद के निषेध के रूप में ही किया है । आदान अथवाआदानाय :
पंद्रहवें अध्ययन के तीन नाम हैं : आदान अथवा आदानीय, संकलिका अथवा शृंखला और जमतीत अथवा यमकीय । नियुक्तिकार का कथन है कि इस अध्ययन की गाथाओं में जो पद पहली गाथा के अंत में आता है वही दूसरी गाथा के आदि में आता है अर्थात् जिस पद का आदान प्रथम पद्य के अन्त में है उसी का आदान द्वितीय पद्य के प्रारंभ में है अतएव इसका नाम आदान अथवा आदानीय है। वृत्तिकार कहते हैं कि कुछ लोग इस अध्ययन को संकलिका नाम से पुकारते हैं। इसके प्रथम पद्य का अन्तिम वचन एवं द्वितीय पद्य का आदि वचन शृंखला की भांति जुड़े हुए हैं अर्थात् उन दोनों की कड़ियां एक समान हैं अतएव इसका नाम संकलिका अथवा शृंखला है। अध्ययन का आदि शब्द जमतीत-जं अतीतं है अतः इसका नाम जमतीत है । अथवा इस अध्ययन में यमक अलंकार का प्रयोग हुआ है अतः इसका नाम यमकीय है जिसका आर्षप्राकृतरूप जमईय है। नियुक्तिकार ने इसका नाम आदान अथवा आदानीय बताया है । दूसरे दो नाम वृत्तिकार ने बताये हैं ।
इस अध्ययन में विवेक की दुर्लभता, संयम के सुपरिणाम, भगवान महावीर अथवा वीतराग पुरुष का स्वभाव, संयमी मनुष्य की जीवनपद्धति आदि का
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org