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________________ सूत्रकृतांग १९७ पुरुषों अर्थात् तीर्थंकरों ने लोक का यथार्थ स्वरूप समझ कर ही प्रतिपादन किया है एवं अन्य वादों का निरसन करते हुए क्रियावाद को प्रतिष्ठा की है। उन्होंने बताया है कि जो कुछ दुःख-कर्म है वह अन्यकृत नहीं अपितु स्वकृत है एवं 'विज्जा' अर्थात् ज्ञान तथा 'चरण' अर्थात् चारित्ररूप क्रिया इन दोनों द्वारा मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। इस गाथा में केवल ज्ञान द्वारा अथवा केवल क्रिया द्वारा मुक्ति मानने वालों का निरसन है। आगे की गाथाओं में संसार एवं तद्गत आसक्ति का स्वरूप, कर्मनाश का उपाय, रागद्वेषरहितता, ज्ञानी पुरुषों का नेतृत्व, बुद्धत्व, अंत करत्व, सर्वत्र समभाव, मध्यस्थवृत्ति, धर्मप्ररूपणा, क्रियावादप्ररूपकत्व आदि पर प्रकाश डाला गया है । याथातथ्य: तेरहवें अध्ययन का नाम आहत्तहिय-याथातथ्य है। इसमें २३ गाथाएँ हैं। याथातथ्य का अर्थ है यथार्थ-वास्तविक-परमार्थ-जैसा है वैसा । इस अध्ययन की प्रथम गाथा में ही आहत्तहिय-आधत्तधिज्ज-याथातथ्य शब्द का प्रयोग हुआ है। अध्ययन के नाम से तो ऐसा मालूम होता है कि इसमें किसी व्यापक वस्तु का विवेचन किया गया है किन्तु बात ऐसी नहीं है। इसमें शिष्य के गुण-दोषों की वास्तविक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है । शिष्य कैसे विनयी होते हैं व कैसे अविनयी होते हैं, कैसे अभिमानी होते हैं, व कैसे सरल होते हैं, कैसे क्रोधी होते हैं व कैसे शान्त होते हैं, कैसे कपटी होते हैं वाकैसे सरल होते हैं, कैसे लोभी होते हैं व कैसे निःस्पृह रहते हैं-यह सब प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित है । ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह : चौदहवें अध्ययन का नाम ग्रंथ है। नियुक्ति आदि के अनुसार ग्रन्थ का सामान्य अथं परिग्रह होता है । अथ दो प्रकार का है : बाह्यग्रन्थ और आभ्यन्तरग्रन्थ । बाह्य ग्रन्थ के मुख्य दस प्रकार हैं : १. क्षेत्र, २. वास्तु, ३. धन-धान्य, ४. ज्ञातिजन व मित्र, ५. वाहन, ६. शयन, ७. आसन, ८. दासी, ९. दास, १० विविध सामग्री । इन दस प्रकार के बाह्य ग्रन्थों में मूर्छा रखना ही वास्तविक ग्रन्थ है । आभ्यन्तर प्रन्थ के मुख्य चौदह प्रकार हैं : १. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ, ५. स्नेह, ६. द्वेष, ७. मिथ्यात्व, ८. कामाचार, ९. संयम में अरुचि, १०. असंयम में रुचि, ११. विकारो हास्य, १२. शोक, १३. भय, १४. घृणा । जो दोनों प्रकार के प्रन्थ से रहित हैं अर्थात् जिन्हें दोनों प्रकार के ग्रन्थ में रुचि नहीं है तथा जो संयममार्ग की प्ररूपणा करने वाले आचाराग आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने वाले है वे शैक्ष अथवा शिष्य कहलाते है। शिष्य दो प्रकार के होते हैं : दोक्षाशिष्य और शिक्षाशिष्य । दोक्षा देकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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